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________________ कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ६९ भंगों के समान शून्य है, केवल शब्द मात्र है। द्रव्य और भाव दोनों ही तो परिग्रह के रूप हैं। दोनों के अभाव में परिग्रह हो ही नहीं सकता। ___ अतः कहना होगा कि भाव या अध्यवसाय से ही हिंसा, असत्य आदि कर्मबन्ध के कारण होते हैं, भावरहित केवल द्रव्य से नहीं। अध्यवसाय बदलते रहते हैं, निमित्त के अवलम्बन से यह सत्य है कि जीवों के अध्यवसाय बदलते रहते हैं। वे सदा एक-से नहीं रहते। आत्मा किसी समय शुभ अध्यवसाय के और कभी अशुभ अध्यवसाय के प्रवाह में बहता रहता है। शुभ से अशुभ अध्यवसाय में तथा अशुभ से शुभ अध्यवसाय में आने में प्रायः कोई न कोई व्यक्ति, वस्तु या भावात्मक पदार्थ निमित्त बन जाता है। जैसेप्रसन्नचन्द्र राजर्षि के अशुभ अध्यवसायों में दुर्मुख, पुत्र के प्रति मोहभाव तथा मंत्रियों के प्रति द्वेषभाव निमित्त बने और बाद में शुभ अध्यवसाय आने में स्वयं का मुण्डित मस्तक तथा मुनित्व का भाव निमित्त बना। फिर तो उत्तरोत्तर शुद्ध अध्यवसाय में आत्मस्वरूप में रमणता, आत्मभावों में तन्मयता निमित्त बनी। अमनस्क जीवों के अध्यवसाय कैसे ? - कोई कह सकता है कि जिनके मन नहीं होता, ऐसे निगोद से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के अध्यवसाय कैसे होते होंगे? फिर ऐसे असंज्ञी (अमनस्क) जीवों को अध्यवसाय के बिना कर्मबन्धन नहीं होना चाहिए। किन्तु ऐसी बात नहीं है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के द्रव्यमन भले ही न होता हो, परन्तु भावमन तो होता ही है। जैसे-वनस्पतिकायिक जीव एकेन्द्रिय हैं। उनके भावमन होता है, उनका मन सुषुप्त होता है, विकसित नहीं होता है, परन्तु उनकी अन्तश्चेतना जागृत होती है, वे अपने सुख-दुःख को समझते हैं। यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव हमें इन चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देते, फिर भी उनमें अध्यवसाय होते हैं। वनस्पति, अग्नि, वायु, पृथ्वी, १. (क) अरत्त-दुट्ठस्स धम्मोवगरणं दव्यओ परिग्गहो, नो भावओ । (ख) मुच्छियस्स तदसंपत्तीए, भावओ न दव्वओ। (ग) ज पि वयं च पार्य वा, कंबल पाय पुच्छणं । त पि संजम-लज्जडा धारंति परिहरति अ॥ न सो परिग्गहो बुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्त महेसिणा ॥ -दशवकालिक अ. ६, गा. २०-२१ (घ). मूर्छा परिग्रहः । -तत्वार्थसूत्र ७/१२ (ङ) एवं चेव संपत्तीए दव्वओ वि, भावओ वि । (च) चरम भंगो पुण सुनो। (छ) श्री अमर भारती (अक्टूबर-नवम्बर १९८४) में प्रकाशित श्री उपाध्याय अमरमुनि जी के ____ 'द्रव्य-भाव-चतुर्भगी' लेख से, पृ. १५, १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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