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________________ 68 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) (४) चतुर्थ भंग-न द्रव्य से मैथुन है, न ही भाव से। यह भंग केवल शाब्दिक विकल्प है। अतः पूर्वोक्त चतुर्थ भंगों के समान यह भी शून्य है। जीवन में द्रव्य और भाव दोनों के अभाव में अब्रह्मचर्य की कोई स्थिति नहीं होती।' परिग्रह-अपरिग्रह-सम्बन्धी चतुर्भगी-(१) प्रथम भंग-द्रव्य से परिग्रह, भाव से नहीं। राग-द्वेषभाव से रहित होकर वीतरागचर्यारत साधु-साध्वी के लिए धर्मोपकरण रखना द्रव्य से परिग्रह है, भाव से नहीं। साधु-साध्वीगण धर्मचर्या अथवा जीवदया आदि हेतु से संयम पोषक या धर्मसाधना सहायक आगमविहित धर्मोपकरण रखते हैं, तथा उनका उपयोग करते हैं, वह मूर्छा भाव से भोगासक्ति से या रागभाव से नहीं रखते और न ही उपयोग करते हैं तो द्रव्य से परिग्रह भले ही कहें, भाव से परिग्रह नहीं है। फलतः उक्त भंग शुद्ध है, इसमें परिग्रह-मूलक कर्मबन्ध नहीं होता। (२) द्वितीय भंग-भाव से परिग्रह, द्रव्य से नहीं। किसी अभीष्ट वस्त के प्रति राग है, मूर्छा है, आसक्ति है, वह वस्तु चाहे साधक के पास विद्यमान हो या प्राप्त न हो, फिर भी वहाँ भाव से परिग्रह है, द्रव्य से नहीं। इस प्रकार द्वितीय भंग परिग्रह मूलक कर्मबन्ध का हेतु है; क्योंकि परिग्रह से सम्बन्धित वस्तु पास में न होने या उपलब्ध न होने पर भी उस पर मूर्छाभाव होने से परिग्रह है। __ आगमों में तथा तत्त्वार्थसूत्र आदि में मूर्छा को परिग्रह बताया है, वस्तु को नहीं। वस्तुतः परिग्रह चित्त की राग-मोह-मूछात्मक वृत्ति है। यदि वह है तो वस्तु के न होते हुए भी परिग्रह है, और यदि वह नहीं हो तो वस्तु के होते हुए भी परिग्रह नहीं है। दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा है-धर्मसाधनोपयोगी वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन, आदि धर्मोकरण परिग्रह नहीं हैं, मूर्छा को भगवान् ने परिग्रह कहा है। जहाँ तक रागादि भाव का प्रश्न है-यदि देह में आसक्ति है। जीवन का मोह है, या यश-प्रसिद्धि आदि की कामना है, तो वहाँ भी परिग्रह है। अगर वस्तुओं को परिग्रह कहेंगे तो तीर्थंकरो के छत्र, चामर, सिंहासन, समवसरण, भामण्डल आदि अनेक विभूतियों को भी परिग्रह कहना पड़ेगा, परन्तु तीर्थंकरों के जीवन में निःसंगता तथा वीतरागता होने से उक्त द्रव्यपरिग्रह को भावपरिग्रह तथा कर्मबन्धहेतुक नहीं कहा है। (३) तीसरा भंग-किसी वस्तु के प्रति आसक्ति या लालसा है, और उसे प्राप्त भी कर लिया है, या वह प्राप्त भी है, तो वहाँ परिग्रह का तीसरा भंग होगा-द्रव्य से भी परिग्रह और भाव से भी परिग्रह। यह द्रव्य-भाव से परिग्रह कर्मबन्ध का हेतु है। (४) चतुर्थ भंग-न द्रव्य से परिग्रह है और न ही भाव से। यह भंग पूर्वोक्त चतुर्थ १. (क) मेहुण सन्ना-परिणयस्स तदसंपत्तीए भावओ, न दव्वओ | (ख) एवं चेव संपत्तीए, दव्यओ वि, भावओ वि । (ग) चरिम भंगो पुण सुत्रो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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