SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) पर चलने लगता है। सब निर्णय धरे रह जाते हैं। उस समय वह यह विचार नई करता कि वह कितना कर्मबन्ध कर रहा है? इसका क्या परिणाम आएगा? नमक के त्याग की शर्त को तोड़ने का नतीजा कुछ वर्ष पहले की एक सत्य घटना है। एक धनिक का पुत्र दुःसाध्य रोग से ग्रस्त हो गया। उसके स्वजन रोने लगे। किसी ने कहा-“यहाँ से कुछ ही दूर एक संन्यासी रहते हैं। शायद वे इसे स्वस्थ कर सकेंगे।" कुछ लोग दौड़कर उस संन्यासी को बुल लाए। उसने लड़के की बीमारी की हालत देखकर कहा-"आपको मेरी एक शर्त स्वीकार हो तो इस लड़के को दवा दूँ उस दवा से आपका लड़का बच जाएगा, स्वस्थ भी हो जाएगा, मगर उसे जिंदगी भर के लिए नमक का त्याग करना पड़ेगा।" सबने स्वीकार किया कि लड़का बच जाए तो भले ही आजीवन नमक का त्याग करना पड़े करेगा। सबने यह शर्त मंजूर की। संन्यासी ने दवा दी। लड़का स्वस्थ हो गया। अब वह नमक-रहित भोजन करता रहा। तबियत ठीक रहने लगी। एक दिन माता पिता किसी कार्यवश बाहर गए। घर में लड़का और नौकर दो ही थे। लड़के वे मन में विचार आया कि “आज तो नमक लगे हुए बादाम और पिश्ते खाएँगे। नमव उनमें लगा होगा पर कितना नमक होगा? उतने से क्या नुकसान होगा?" उसने नौकर से नमकीन बादाम-पिश्ते देने के लिए कहा। नौकर ने एक बार तो मना किया, लेकिन आखिर न मानने पर उसे लाकर देने पड़े। सेठ के पुत्र ने वे नमकीन बादाम-पिश्ते खाये; लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसे बेचैनी मालूम होने लगी। हाल बिगड़ती चली गई और माता-पिता आए तब तक उसकी हालत बहुत बिगड़ चुर्क थी। नौकर से उन्होंने पूछा तो उसने सारी बात स्पष्ट कह सुनाई। माता-पिता को बहुत अफसोस हुआ। वे दौड़कर संन्यासी के पास पहुँचे। लड़के की हालत बता का उसे संभालने की विनति की। संन्यासी ने घर आकर लड़के की हालत देखी तो कहा"इसके पेट में नमक गया है। अब मैं लाचार हूँ। अब इसे बचाना मेरे बस की बार नहीं। मैंने सिद्धरसायन खिलाकर इसकी जान बचाई थी। इसमें नमक का आजीवन त्याग करने की शर्त थी, किन्तु वह शर्त तोड़ डाली गई है। इसी कारण इसकी ऐसे हालत हो गई है। बस अब आप इसे राम-नाम सुनाते रहें, यह सिर्फ आधे घंटे क मेहमान है।"२ यही बात हुई। लड़का आधे घंटे के बाद मर गया। घर में कोहराम मच गया। जानबूझ कर कर्म बाँधने के पीछे पूर्वोक्त प्रवृत्ति-संस्कार ही कारण अतः जीव द्वारा जान-बूझकर भी कर्म बाँधते रहने के पीछे यही पूर्वोक्त प्रवृत्ति-संस्कार कारण है। प्रवृत्ति-संस्कार के कारण व्यक्ति बार-बार कर्म बाँधता है १. आत्मतत्व विचार पृ. ३८८ २. आत्मतत्वविचार से पृ. ३८८-३८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy