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________________ कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ५५ चलकर उसके पास नहीं आया। वह स्वयं ही ट्रेन में बैठ कर स्टेशन के पास आया है। कर्म और आत्मा के संयोग के सम्बन्ध में भी ऐसा ही समझना। कोई कह सकता है कि “कर्म तो भव-भव में परिभ्रमण कराने वाले तथा दुःख देने वाले आत्मा के कट्टर शत्रु हैं, उन्हें आत्मा जान-बूझकर अपनी क्रियाओं द्वारा क्यों ग्रहण करती है? अपने पैरों स्वयं कौन कुल्हाड़ी मारेगा?" इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है-माना कि कर्म आत्मा के कट्टर शत्रु हैं, परन्तु अज्ञानादि दोषों से गाढ़रूप से लिप्त आत्मा इस बात को कहाँ समझती है? गीता के अनुसार ऐसी आत्माओं (जीवों) का ज्ञान अज्ञान और मोह से आवृत, कुण्ठित एवं सुषुप्त हो जाता है, इसी कारण वे मूढ़ हो जाती हैं। और अपनी क्रियाओं व परिणामों द्वारा कमों का आसव (ग्रहण) और बन्ध करती रहती हैं और उनके फल भोग कर दुःखी होती रहती हैं।१ ज्ञानस्वरूप होते हुए भी आत्मा कर्मों से क्यों बंधता है? - यह सत्य है कि आत्मा ज्ञान लक्षण वाला है। वह वस्तुस्वरूप को भलीभाँति जान सकता है। निगोद से लेकर मनुष्य भव को प्राप्त करने तक अकाम-निर्जरा के योग से ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर कर्मों का भार हलका होता जाता है, त्यों-त्यों उसके ज्ञान पर आया हुआ आवरण कम होता जाता है, कषायादि विकार कम होते जाते हैं। उसे सम्प्रधारण संज्ञा प्राप्त हो जाती है। ऐसी उच्च संज्ञा प्राप्त होने पर भी अधिकांश व्यक्ति अपना हिताहित नहीं समझते और पुनः पुनः कर्मबन्ध के कारणों के चक्कर में पड़ कर अपनी मनमानी प्रवृत्ति करते रहते हैं, कर्मों को ग्रहण करते और बाँधते रहते हैं। इस प्रकार वे अपनी आत्मा को कमों से आवृत और कुण्ठित कर डालते हैं। कर्मों को कट्टर शत्रु जानते हुए भी वे कर्मों से दूर रहने के बजाय, उन्हें अपनी आत्मा से चिपटाते रहते हैं। कदाचित् मोहवश दूर न भी रहें तथा कर्म गाढ़ बन्धन से न बाँधे और कर्म बहुत ही शिथिल बाँधे ताकि भविष्य में उन्हें अनेक प्रकार की दुःखद यातनाएँ न भोगनी पड़ें।२ ... . क्रिया-प्रतिक्रियाजनक संस्कार के कारण कर्मबन्ध होता रहता है। पिछले पृष्ठों में हमने क्रिया से प्रतिक्रिया और प्रवृत्ति से पुनः पुनः प्रवृत्ति के संस्कार के विषय में बताया था। एक बार किसी प्रवृत्ति को चालू करने के बाद मनुष्य उसे नितान्त अहितकारी जानते हुए भी सर्वथा त्याग नहीं कर पाता। जब असातावेदनीय का उदय होता है तो मनुष्य उस दुष्कर्म को न करने का निर्णय करता है, लेकिन ज्यों ही सातावेदनीय का उदय हुआ कि पूर्वसंस्कारवश उसी पुरानी चाल १. (क) वही, पृ. ३८६-३८७ (ख) अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः। -भगवद्गीता २. आत्मतत्व-विचार से भावांश-ग्रहण, पृ. ३८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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