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________________ कर्म आने के पाँच आनव द्वार ६०३ दूसरा उपाय 'चारित्रसार' में इस प्रकार बताया गया है-जिस प्रकार मंत्रबल से जांगलिक (सपेरा) सर्प की देश-प्रचेष्टा तथा विषवमन को स्तम्भित कर देता है, उसी प्रकार संवरगुणों के पुनः पुनः चिन्तन (अनुप्रेक्षण) से तथा सम्यक्त्व, व्रत, निष्कषायता, अयोगता आदि परिणामों की तीव्र धारा से अन्दर ही अंदर होने वाले आम्रवों का प्रादुर्भाव बंद हो जाएगा।' फिर भी तेरहवें गुणस्थान तक योगों की चंचलता रहेगी। वह भी शुभयोगों में प्रवृत्ति से अशुभ योग के संवर (अशुभयोग रूप आस्रव के निरोध) होते जाएँगे, और शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति से शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के योगों (प्रवृत्तियों) का निरोधरूप संवर हो जाएगा। किन्तु योगदर्शन के अनुसार संवर-साधना की दृढ़ भूमिका तभी स्थापित होगी, जब साधक दीर्घकाल तक निरन्तर सत्कार पूर्वक संवरानुप्रेक्षा के साथ-साथ संवरसाधना का अभ्यास करेगा। आनव और बंध में अन्तर तथा दोनों की कार्य-भिन्नता प्रश्न होता है - गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) तथा समवायांग आदि में मिथ्यात्व आदि पाँचों को आनव के तथा तत्त्वार्थसूत्र एवं समयसार आदि में मिथ्यात्व आदि को बन्ध के कारण बताए हैं। दोनों में ये पाँचों कारण समान हैं; फिर आनव और बन्ध में क्या अन्तर रहा ? इसका समाधान यह है कि मिथ्यात्व आदि पाँचों के द्वारा पहले केवल कर्मों का आगमन (प्रवेश या आस्रव) होता है, इसके पश्चात् ही दोनों (आत्मा और कर्मों) का एक क्षेत्रावगाह-सम्बन्धरूप बन्ध होता है। अर्थात् - पंचाध्यायी के अनुसार - आम्रव के 'अनन्तर जीव कर्म से निबद्ध हो जाता है और कर्म जीव से। दोनों का अन्योन्यानुप्रवेशपरस्पर श्लेष हो जाता है, जिसके कारण कर्म अपना फल भुगताए बिना आत्मा से पृथक् नहीं होते। निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्वादि पाँचों पहले क्षण में आम्रव रूप होते हैं, वे ही उत्तरक्षण में बन्धरूप हो जाते हैं। इन दोनों के कार्यों में अन्तर के कारण दोनों का अन्तर स्पष्ट है। १. तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ९/७ (क) तत्त्वार्थ- राजवार्त्तिक ९/७/७/२ (ख) चारित्रसार पृ. ८७ (ग) “सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । . सुहजोगस्स निरोहो सुद्धवजोगेण संभवति । " (घ) आचारसार १० / ४० 'स तु दीर्घकाल - नैरन्तर्य-सत्कारासेवितो दृढभूमिः । Jain Education International - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ६३ -योगदर्शन पाद १, सूत्र १४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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