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________________ ६०२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) महिमा एक रूपक द्वारा समझाई गयी है-एक नगर है। उसके चारों ओर शत्रुगण घेरा डाले हुए पड़े हैं। परन्तु नगररक्षकों द्वारा नगर के मुख्य द्वार अच्छी तरह बंद कर रखे हैं। ऐसी स्थिति में उस नगर में उन शत्रुओं या अवांछनीय लोगों का प्रवेश दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार जो साधक पाँच समिति, तीन गुप्ति, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचनता (अपरिग्रह वृत्ति) और ब्रह्मचर्य, इन दशविध धर्मों, तथा बाईस प्रकार के परीषहों पर विजय, एवं सामायिक आदि पंचविध चारित्ररूपी कपाटों से आत्मारूपी नगर के द्वार बंद कर लेता है, उसमें फिर मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप आमवशत्रुओं का तथा अव्रत, कषाय, इन्द्रिय-विषयासक्ति एवं . चौबीस साम्परायिक क्रियाओं रूपी अवांछनीय तत्त्वों का प्रवेश दुर्गम्य हो जाता है।' भीतर प्रादुर्भूत होने वाले आनवों को बंद करने का उपाय : संवरानुप्रेक्षा प्रश्न होता है इस प्रकार समिति, गुप्ति आदि संवरों द्वारा आत्मा को संवृत कर लेने पर नवीन कमों के आगमन का द्वार तो रुक जाता है; परन्तु पहले से आत्म-प्रदेश में जो उनके साथी कर्म बैठे हुए हैं, उनके निमित्त से अंदर ही अंदर सांसारिक छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवों के साथ रागद्वेष के कारण कर्मों का आगमन या प्रादुर्भाव रूप आम्रव होता जाएगा; उसे रोकने का क्या उपाय है ? क्योंकि संवर का एक लक्षण राजवार्तिक में ऐसा भी किया गया है कि "मिथ्यादर्शनादि, जो कर्मों के आगमन के निमित्तों का अप्रादुर्भाव आम्नवनिरोध है, तथा आम्नव निरोध होने पर कर्मों के ग्रहण का अभाव हो जाना संवर है।" ___इस प्रकार के आसवों के प्रादुर्भाव या कमों के ग्रहण को रोकने के लिए राजवार्तिक, चारित्रसार एवं सर्वार्थसिद्धि में 'संवरानुप्रेक्षा' बताई गई है। एक रूपक द्वारा इस तथ्य को समझाया गया है-जिस प्रकार समुद्र में नौका के भीतर हुए छिद्र को बंद न करने पर क्रमशः उसके द्वारा भीतर आते हुए जल से नाव के डूब जाने पर उसके आश्रित यात्रियों का विनाश अवश्यम्भावी है, इसके विपरीत उस छिद्र के बंद कर देने पर वे यात्री सकुशल अपने अभीष्ट गन्तव्य स्थान में पहुँच जाते हैं; उसी प्रकार कर्मों के आगमन (आसव) के द्वारों को जो रोक देता है, शरीररूपी पोत (नाव) में इन्द्रियविषयासक्ति आदि द्वारों से छिद्र हों, और उनसे कर्मजलरूपी आसव आ रहे हों तो उन्हें तप (बाह्य आभ्यन्तर तपाचरण) से बंद कर देता है, अथवा संवरानप्रेक्षा से उन्हें संवृतअवरुद्ध कर देता है ऐसा मोक्षसाधक यात्री उपद्रव से रहित सकुशल अपने अभीष्ट स्थान (मोक्ष) में पहुंच जाता है। संवर-गुणों का अनुचिन्तन (अनुप्रेक्षा) करने से उसके कल्याण में कोई बाधा नहीं आती। १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/४, ११/१८ २. 'कर्मागमनिमित्ताऽप्रादुर्भूतिराम्रव-निरोधः, तनिरोधे सति तत्पूर्व-कर्मादानाभावः संवरः।' __-राजवार्तिक ९/१/१,२/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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