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________________ ५९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६). शिकार बने रहते हैं। जो शास्त्रगत सिद्धान्तों को क्रियान्वित करता है, पापकर्मों से डरता. है, वही पण्डित है, विद्वान् है।" .. वास्तव में, आकांक्षाओं की अतृप्ति का कारण व्यक्ति की 'मिथ्यादृष्टि' है। व्यक्ति की दृष्टि विपरीत हो तो, चाहे कितना ही शास्त्र ज्ञान करले, जप, तप, क्रियाकाण्ड करले, उसकी पदार्थों की आकांक्षा या पिपासा मिटती नहीं है; क्योंकि जिन अनुष्ठानों और आचरणों से पिपासा शान्त होती है, उनको वह बिलकुल अपनाता नहीं, और जिससे पिपासा भड़कती है, आकांक्षाएँ समुद्र की लहरों की तरह अधिकाधिक बढ़ती हैं, उन्हें वह मूढ़ बनकर अपनाता रहता है।' दृष्टिमूढ़ होने पर मनुष्य जानता हुआ भी सम्यक् नहीं जानता, अथवा विपरीत रूप में जानता है। इसे ही मिथ्यात्व, मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि कहते हैं। मिथ्यात्व-आम्रव के कारण समस्त वस्तुओं को विपरीत रूप में जानता-मानता है . : यह मिथ्यादृष्टि ही समस्त दोषों की जननी है; अनन्त कर्मबन्धक है तथा अनन्त-संसार-परिभ्रमणकारिणी है। मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति दुःखद विषयों को सुखद और अशाश्वत विषयों को शाश्वत मानता है। जो वस्तु खतरनाक है, भयावह है, उसमें वह विश्वास करता है और भय तथा खतरा मिटाने वाली वस्तु पर अविश्वास करके उससे शीघ्र पलायन करता है। - मिथ्यात्वदशा में मनुष्य नित्य को अनित्य, और अनित्य को नित्य समझता है तथा दुःख के साधनों को सुख के और सुख के साधनों को दुःख के साधन समझता है। मिथ्यात्वकाल में सारी बातें उलटी ही उलटी सूझती हैं, वह उलटा ही.सोचता-विचारता है, उसका विश्वास भी यथार्थ के प्रतिकूल होता है। मिथ्यात्व के मुख्य दस प्रकार 'स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के मिथ्यात्व बताए हैं-"धर्म को अधर्म समझना और पशु बलि आदि अधर्म को धर्म समझना, उन्मार्ग को सुमार्ग और सुमार्ग को उन्मार्ग मानना, अजीवों को जीव और जीवों को अजीव समझना, असाधुओं को साधु और सुसाधुओं को असाधु मानना, आठ कर्मों से अमुक्त आत्माओं को मुक्त और मुक्त जीवों को अमुक्त मानना।" १. कर्मवाद पृ. ४९ २. जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ. २२७ ३. दसविधे मिच्छत्ते पण्णते तं जहा-अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, उम्मग्गे मग्गसण्णा, मगे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा। -स्थानांग स्या. १0 सू. ७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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