SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तर में आंकाक्षाओं की घटा, बाहर से त्याग; से चंचलता कम नहीं होती आंकाक्षाओं, इच्छाओं, कामनाओं, वासनाओं, लालसाओं, तृष्णाओं की घटा अन्तर्मन में उमड़ रही हो, वह साधक बाहर से चाहे इन्द्रियों को निश्चेष्ट कर ले, वाणी को बन्द करके मौन हो जाए, तब भी चंचलता कम नहीं होगी। बल्कि दशवैकालिक सूत्र के अनुसार “पद-पद पर ऐसा साधक संकल्प-विकल्पों के वशीभूत होकर विषादमग्न होता रहता है।" कर्म आने के पाँच आनव द्वार ५९३ ऐसा साधक, जो सुन्दर बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, तथा अन्यान्य विषय-भोगों के साधनों का बाह्य रूप से त्याग भी कर ले, परन्तु अन्तर्मन में उनको पाने और उपभोग करने की लालसा एवं कामना प्रज्वलित होती रहे; किन्तु सामाजिक मर्यादाओं, नैतिक नियमों के भय से, लोकलज्जा से उन्हें पाना और उपभोग करना उसके वश की बात नहीं है, ऐसे साधक को कामनाओं और आंकाक्षाओं का त्यागी नहीं कहा जा सकता।”” ऐसे साधक के योगों की चंचलता बाहर से भले ही कम दिखाई दे, परन्तु अन्दर से अधिकाधिक वृद्धिंगत होती जाती है। उसके पांचों आम्रवेद्वार कर्मों के आगमन के लिए खुले होते हैं। इस आन्तरिक चंचलता का कारण भी उसकी अमिट चाह है। ऐसे व्यक्ति सैंकड़ों आशाओं के पाश में बद्ध होकर अपनी चंचलता बढ़ाते रहते हैं और कर्मों के आनव को आमंत्रित करते रहते हैं। आकांक्षा शान्त न होने के पीछे कारण है-मिथ्यात्व आम्नव प्रश्न होता है, कई लोग शास्त्रज्ञ और कर्मविज्ञान-मर्मज्ञ भी होते हैं, वे जानते हैं कि योगों की चंचलता का स्रोत कामना, वासना, इच्छा या आकांक्षा है; फिर भी वे आकांक्षाओं की वस्तुओं की प्राप्ति और उपभोग की पिपासा को क्यों नहीं बुझा पाते ? इसका समाधान यह है कि इस पिपासा के शान्त न होने का भी एक कारण है। मनुष्य इस भ्रान्ति में रहता है कि मैंने इतने शास्त्र पढ़ लिये, इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया; मैं कर्मों के आगमन (आनव) और संश्लेष (बन्ध) के कारणों को जानता हूँ। 1 वास्तव में, वह उक्त सिद्धान्तों और तथ्यों को हृदयंगम नहीं कर पाया। कर्मों के आम्लव और बंध का सिद्धान्त और योगों की चंचलता के मूल स्रोत को बंद करने का तथ्य उसके जीवन में क्रियान्वित अथवा मज्जागत नहीं हो पाया है। उसका पाण्डित्य पल्लवग्राही है। नीतिकार' भी कहते हैं कि " कई लोग शास्त्र पढ़ कर भी मूढ़ता के १. पए पर विसीयंतो संकम्पस्स वसंगओ ॥ वत्य-गंधमलंकारं इत्थीओ संयणाणि य। अच्छंदा जे न भुंजति न से चाइत्ति वुच्च ॥ २. “ शास्त्राण्यधीत्याऽपि भवन्ति मूर्खाः, यस्तु क्रियावान् स एव पण्डितः।” Jain Education International - दशवैकालिक अ. २१-२ - हितोपदेश For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy