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आनव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५८५
जलती रहती है। आम्रवाग्नि को प्रज्वलित करने या प्रज्वलित रखने वाले ये चार प्रेरक तत्त्व हैं। इन आम्नव चतुष्टयरूप अग्नियों के लिए ईंधन है - कर्मपुद्गल ।
ये आनवाग्नियाँ जब जलती हैं, तो आकाश में या पारिपार्शिवक वायुमण्डल में विद्यमान कर्मप्रायोग्य परमाणु पुद्गल स्वतः खिंचे चले आते हैं। जिस प्रकार पतंगे रोशनी देखते ही खिंचे चले आते हैं और रोशनी पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार ये कर्म परमाणु भी इन चारों आम्नवाग्नियों का ताप देखते ही स्वतः आकृष्ट होकर चले आते हैं और आत्म-प्रदेशों में बलात् प्रविष्ट हो जाते हैं। ये कर्म परमाणु ईंधन के रूप में आकर इन अग्नियों को प्रज्वलित करते रहते हैं। पुराने कर्मरूपी ईंधन समाप्त हो जाते हैं तो नये ईंधन आते रहते हैं और इन चारों आम्रवाग्नियों के चलने का सिलसिला जारी रहता है। योग : चारों आनवाग्नियों को प्रज्वलित रखने वाला वायु
अग्नि हवा के बिना प्रज्वलित नहीं रह सकती, यहाँ पूर्वोक्त आम्रवाग्नियाँ भी बिना वायु के जलती नहीं रह सकतीं, उसके बिना वे बुझ जाएँगी । प्रकृति का यह निर्वाध नियम है - जहाँ-जहाँ अग्नि है, वहाँ-वहाँ वायु है। यहाँ इन चारों अग्नियों को प्रज्वलित रखने के लिए वायु है-त्रिविध योग । योग अपने आप में अग्नि नहीं है, मन-वचन-काय स्वतः प्रवृत्ति नहीं करते, स्वयं चंचल व सक्रिय नहीं होते, परन्तु जहाँ पूर्वोक्त चारों प्रकार की नवाग्नियों के लिए कर्मरूप ईंधन है, वहाँ वायु का कार्य करने वाला है योगप्रवृत्ति |
योग का अर्थ- चंचलता, सक्रियता या प्रवृत्ति है। योग तीन हैं - मनोयोग, वचनयोग और काययोग। इन योगों की चंचलता या प्रवृत्ति जितनी तीव्र होगी यानी उतनी तीव्र वायु चलेगी, उतनी ही तीव्रता से कर्मपुद्गल खिंचे चले आएँगे, और पूर्वोक्त अग्नियों को जलने में यह (योग रूपी वायु) सहायता करती रहेगी। वायु स्वयं नहीं जलाती | जलाने का कार्य है- पूर्वोक्त चार आनवों का । किन्तु ये त्रिविध योग जलती हुई आम्नवाग्नि को और अधिक भड़का देते हैं। ये आग में पूला डालने जैसा कार्य करते हैं। अतः आम्रवाग्नि के उत्पादकों और उत्तेजकों को भलीभांति जानकर कर्ममुक्ति के इच्छुकों को इनसे बचने का प्रयास करना चाहिये ।'
१. जैन योग से किंचित् भावांश ग्रहण पृ. ४२-४३
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