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________________ ५८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) कषायों के सहायक नौ नोकषाय हैं, तथा चारों कषायों के भी प्रत्येक के तीव्रतम, तीव्रतर तीव्र और मन्द ये चार-चार स्तर हैं, जिनका किञ्चित् वर्णन हमने 'कर्मों के आने के पाँच आनवद्वार' शीर्षक निबन्ध' में किया है। आगे बन्ध' के प्रकरण में इनके विषय में सांगोपांग निरूपण किया जाएगा। निष्कर्ष यह है कि कषाय आनव की ज्वाला को प्रज्वलित रखने वाली अपने क्रोधादि तथा नोकषाय आदि अंगोपांगों सहित एक प्रबल आग है। इससे साधक की रक्षा तभी हो सकती है, जब वह इन चारों कषायों की चाल, इनके विविध स्तर और पैंतरों को पहचाने और उनसे बचने के लिए भगवान् महावीर के इस निर्देश सूत्र को सदैव ध्यान में ' रखे-'जो व्यक्ति अपनी आत्मा का हित चाहता है, वह पापकर्मवर्द्धक क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का वमन - परित्याग कर दे। क्योंकि क्रोध प्रीति को नष्ट कर देता है, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सभी गुणों का विनाश कर डालता है। अतः क्रोध को शान्ति से, मान (अहंकार) को मृदुता - नम्रता से, माया को ऋजुतासरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए।''३ कर्मबन्ध और उनके कटुफल के परिप्रेक्ष्य में भगवान् ने कहा - "क्रोध से आत्मा का अधःपतन होता है, मान से अधम गति प्राप्त होती है, माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और लोभ से इहलोक और परलोक दोनों में भयंकर क्लशों का भय है।'' आचारांगनिर्युक्ति में स्पष्ट कहा है- "संसार का मूल कर्म है, और कर्म का मूल हैकषाय । अतः कषायाग्नि को सदैव उपशान्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। चारों की सम्मिलित आम्नवाग्नि: कर्म परमाणुरूप ईंधन निष्कर्ष यह है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय, यह चारों प्रकार की सम्मिलित आनवाग्नि दसवें गुणस्थान तक समस्त संसारी जीवों में तीव्र-मन्दरूप में सतत १. कषायों के १६ भेदों का संक्षिप्त उल्लेख देखें-'कर्मों के आने के पाँच आनवद्वार' शीर्षक निबन्ध में। २. ३. कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं । ४. कषायों के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन बन्ध के प्रकरण में देखें । ५. वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयणासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो ॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्ददया जिणे । माया मज्जा लोभं संतोसओ जिणे ॥ अहे वय कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गइ पडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ॥ "संसारस्स उ मूलं कम्मं, तस्स वि हुतिय साया ।" Jain Education International - दशवैकालिक ८/३७-३८-३९ For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन ९/५४ - आचारांग नियुक्ति १८९ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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