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________________ १०४२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) ___ इन दोनों गाथाओं में आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा (दोषों का प्रकटीकरण) तथा प्रायश्चित्त के रूप में प्रतिक्रमण करने का विधान है। आत्मा को अशुद्ध भाव, विचार, वचन और कार्य से रोक कर वापस शुद्ध भाव में लौटा लेना प्रतिक्रमण का उद्देश्य है। रागद्वेषादि औदयिक भाव संसार (आसव) मार्ग है और समता, क्षमा, करुणा, नम्रता, दया आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्षमार्ग (संवरमार्ग) है। चैतन्ययात्री द्वारा क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में भटक जाने पर पुनः क्षायोपशभिक भाव में लौट आने को भी प्रतिक्रमण कहा गया है।' भगवती आराधना में अध्यात्मसंवर के सन्दर्भ में भाव-प्रतिक्रमण की परिभाषा दी गई है-आर्त-रौद्रध्यानादि अशुभपरिणाम और पुण्यासव के कारणभूत शुभ परिणाम भाव कहलाते हैं। इन दोनों प्रकार के शुभाशुभ भावों से निवृत्त होकर शुद्ध परिणामों (भावों) में स्थित होना भावपरिणाम है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भाव प्रतिक्रमण की व्याख्या इस प्रकार की है"मिथ्यात्व, कषाय आदि दुर्भावों (आसवकारणों) में मन-वचन-काया से स्वयं गमन न करना, न दूसरों को गमन कराना और न गमन करने वालों का अनुमोदन करना भावप्रतिक्रमण है।" भगवतीसूत्र में प्रतिक्रमण को त्रिकाल-विषयक बताते हुए कहा गया है-भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण करना, वर्तमान में लगने वाले दोषों से संवर (निरोध) द्वारा बचना तथा भविष्य में लग सकने वाले दोषों को प्रत्याख्यान द्वारा रोकना त्रिकाल-विषयक प्रतिक्रमण है।" सचमुच, प्रतिक्रमण अध्यात्मसंवर की सिद्धि के लिए अमोघ साधन है और आत्मयुद्ध में शुद्धआत्मा को विजयी बनाने में सहायक उपाय हैं। (ख) "जं जाणमजाणं वा कट्ट आहम्मियं पयं। संजमे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समाचरे॥" अणायारं परक्कम्म, नेव गूहे न निण्हवे। सूई सया वियडभावे; असंसत्ते जिइंदिए॥ -दशवकालिक ८/३०-३१ १. (क) समता योग (रतनमुनि) से सारांश ग्रहण, पृ. २०२ (ख) आर्तरौद्रमित्यादयोऽशुभपरिणामाः, पुण्यासवभूताश्च शुभपरिणामा इह भाव-शब्देन गृह्यन्ते, सेभ्योनिवृत्तिः भावप्रतिक्रमणमिति। -भगवती आराधना टीका (ग) क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशंगतः। तत्रापि च सुखाऽर्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः। __-आवश्यक हारि. वृत्ति २. देखें-आवश्यक नियुक्ति (आचार्य हरिभद्र) ३. . देखें-अईयं पडिक्कमेइ, पडुप्पन्नं संवरेइ, अणागय पच्चक्खाइ। -भगवतीसूत्र के इस पाठ की व्याख्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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