SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १,०४१ का साधक प्रतिक्रमण के माध्यम से अपने आपको तटस्थ होकर देखता है, मन-वचनकाया के योगों (प्रवृत्तियों) का कोना कोना छान'डालता है। वह स्वयं अन्तर्मन की गहराई में उतर कर निरीक्षण-परीक्षण करता है, दिन रात्रि, पक्ष, संवत्सर आदि में कहीं भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि में दोष (अतिचार) का कूड़ाकर्कट जमा हो गया हो उसे तुरंत बाहर निकालता है, और ज्ञानादि की शुद्धि करके उन्हें स्वस्थान पर लाता-रखता है। प्रतिक्रमण में अध्यात्म-संवर का साधक अपनी छोटी-से-छोटी भूल को बारीकी से पकड़कर निकालता है और भविष्य में उन दोषों को न होने देने के लिए प्रत्याख्यान (नियम, सौगन्ध या प्रतिज्ञा) करता है। प्रतिक्रमण की साधना में अध्यात्मसंवर के साधक को आत्मयुद्ध करना पड़ता है। कच्चा साधक घबरा जाता है। वह सोचता है-एक ओर हिंसादि तथा रागद्वेष-मोहादि जनित आनवों की विशाल सेना है, दूसरी ओर अध्यात्मसंवर की आत्मिक ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की सेना है, इनकी सहायता के लिए समिति, गुप्ति, महाव्रत, श्रुतज्ञान (शास्त्र, ग्रन्थ), चारित्र, तप आदि सेना है। परन्तु अध्यात्मसंवर की साधना यात्रा में साधक संवर के शुद्ध मार्ग को छोड़कर आग्निव के मार्ग पर चढ़ जाता है। प्रतिक्रमण, उस साधक को सावधानीपूर्वक वापस स्वमार्ग पर ले आता TR" . प्रतिक्रमण का अर्थ है-वापस लौटना। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर अथवा ज्ञानादि निजी गुणों को छोड़कर प्रमादवश, मिथ्यात्ववश, कषायवश या अशुभ योगवश परभावों या विभावों में भटक जाता है, तब प्रतिक्रमण उस भूल का मिथ्यादृष्कृत, निन्दना, गर्हणा, आलोचना, वन्दना, क्षमापना: प्रायश्चित आदि के धारा परिमार्जन करके खात्मा को पुनः अपने स्थान में अपने शुद्ध स्वरूप में ले आता है। प्रतिक्रमण आलशुद्धि, आत्मालोचन, आत्मप्रतिलेखन, आमरणता, आत्म स्वरूप में स्थिति आदि का सर्वोत्कृष्ट रूप है। शास्त्रों में यत्र तत्र अध्यात्मसंवर के साधक को संवर मार्ग से आसवमार्ग में भटक जाने पर पुनः लौटने का संकत किया गया है। उदाहरणार्थ-दशवकालिक सूत्र में कहा गया है-"(अध्यात्मसंवर के) साधक से जानतेअजानते कोई अधार्मिक कृत्य हो जाए तो तुरंत उससे अपने आपको रोक ले (संवृत कर ले) तथा दूसरी बार वह कृत्य न करे। अनाचार का सेवन करके उसे गुरु के समक्ष छिपाए नहीं (आलोचना करके प्रकट करे) और न सर्वथा अपलाप (किये हुए दोष का अस्वीकार) करे। किन्तु प्रायश्चित्त लेकर सदा पवित्र (शुद्ध) और स्पष्ट (प्रकटभावधारक), असंसक्त (अलिप्त-बेलाग) और जितेन्द्रिय रहे। १. देखें-जैन आचारः सिद्धान्त और स्वरूप (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) ... २. (क) प्रतीय कमणम्-प्रतिक्रमणम् । अयमर्य:-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्येव क्रमणात् प्रतीयं क्रमणम्।" -योगशास्त्र २/१५ व्याख्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy