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________________ . अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०३५ वह वीतराग-आज्ञा का आराधक होता है, जो क्रोधादि का उपशमन नहीं करता, वह आराधक नहीं है। ... अध्यात्मसंवर का सच्चा आराधक क्रोधादि उत्पन्न होते ही तुरन्त संभल जाता है, अपने विवेक, ज्ञान और समझदारी से, क्रोध, कलह, अहंकार, लोभ, मोह आदि की लौकिक लोकोत्तर हानियों को भलीभांति समझकर स्वयमेव उसका शमन कर लेता है। शमन की विविध प्रक्रिया और आगमों में यत्र तत्र शमनं निर्देश समझदारी, विवेक, सूझबूझ, हिताहित विचार, आत्महित चिन्तन आदि सब शमन की प्रक्रिया के अन्तर्गत हैं। आगमों में साधक को यत्र-तत्र अपनी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अब्रह्मचर्य, आदि आसवोत्पादक कर्मबन्धकारक वृत्तियों को उपशमन करने की विधियों को निर्देश किया गया है। जैसे-दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-एक साधक सुरूप और कुरूप के प्रति, इष्ट और अनिष्ट के प्रति समभाव रखते हुए, अथवा राग-द्वेषभाव न करते हुए समदृष्टिपूर्वक या प्रशस्तध्यानपूर्वक या सम्प्रेक्षोपूर्वक (संयम की अनुप्रेक्षापूर्वक) विचरण कर रहा है। कदाचित् उसका मन मोहकर्मोदयवश पूर्वमुक्त भोगों या कामक्रीड़ा आदि के स्मरण से संयम रूप घर से बाहर निकलने लगे, मन नियंत्रण में न रहे तब आत्मत्राता साधक तुरन्त उसके उपशमन के लिए यह विचार करे कि वह स्त्री या आत्मा से भिन्न परभावात्मक वस्तु मेरी नहीं है, और न ही मैं उसका हूँ। तात्पर्य यह है कि मोहोदयवंश किसी स्त्री या परवस्तु के प्रति कामराग, स्नेहराग या दृष्टिराग, किसी भी प्रकार का राग जागृत हो जाए तो पूर्वोक्त चिन्तनमंत्रबल से तुरंत उसका अपनयन-शमन करे, तुरंत वहीं उसे समझदारी से विवेकपूर्वक दबा दे। इससे अगली गाथा में शमन के द्वारा काम-राग-निवारण न हो तो आत्म-दमन के द्वारा काम निवारण के चार उपाय बताए हैं-(१) आतापना ले, (२) सुकुमारता का त्याग करे,(३) द्वेषभाव का छेदन करे, (४) राग़भाव को दूर करे। इस प्रकार कामभोगों की वासना का (आत्मदमनोपायों से) अतिक्रम कर, जिससे दुःख का स्वतः अतिक्रम हो 9. ""णिगंथाणं निग्गयीणं वा अजें व कक्खेउ कडुए विग्गहे समुप्पजिज्जासेहे राइणीअं खामिज्जा, राइणीए वि सेह खामिज्जा।खमियवं खमावियव्वं, उवसमियव्वं उवसमावियव्वं संमुह साहुच्छणा बहुलेण होयव्व। जो उवसमइ अस्यि तस्स आराधणा, जो उ न उवसमइ तस्स नत्यि आराहणा, तम्हा. अपणा चेव उवसमियत्वा से किमाहु भंते ?. उबसमसारं खु सामण्णं॥" -कल्पसूत्र (उत्तरार्द्ध) पत्रांक २७० २. (क) समाए पाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा। न सा महं नोवि अपि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज राग॥४॥ दशवै. अ.२ गा.४ (ख) इसकी व्याख्या देखें। -दशवै. विवेचन (आ. प्र. समिति, व्यावर) पृ. ३६-३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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