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________________ १०३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आत्मयुद्ध का दूसरा उपाय या प्रकार : शमन-उपशम दमन के पश्चात् आत्मयुद्ध का दूसरा प्रकार या उपाय शमन है। इसे जैनपरिभाषा में शम, उपशम, या प्रशम भी कहते हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में दो प्रक्रियाएँ हैं-एक है उपशमन की और दूसरी है - क्षयीकरण की । उपशम में वृत्तियों का समूल क्षय नहीं होता, किन्तु उसका तात्कालिक शमन हो जाता है। मनोविज्ञान में इसे शमन (सप्रेशन) कहते हैं। किसी वृत्ति का एक साथ ही क्षय हो जाए, यह जरूरी नहीं है, होना भी कठिन हैं। समाज में, परिवार में या राष्ट्र में रहने वाला व्यक्ति हो, अथवा अध्यात्म-साधना में रत रहने वाला हो; कोई भी व्यक्ति सहसा अध्यात्म-संवर के चरम लक्ष्य- वीतराग भाव को प्राप्त नहीं कर लेता। कोई भी साधक आज का आज ही सिद्धि प्राप्त कर ले, यह अतिकल्पना है। हाँ, गजसुकुमालमुनि की तरह पूर्वजन्म में साधना की हुई हो, वह साधना अधूरी रह गई हो तो इस जन्म में, एक ही दिन में सिद्धि-मुक्ति प्राप्त हो सकती है। परन्तु यह प्रत्येक साधक के लिए दुष्कर है। कषायों की वृत्ति छठे गुणस्थान में पूर्णतया क्षीण या शान्त नहीं होती। दसवें गुणस्थान में जाकर संज्वलन (सूक्ष्म) क्रोधादि कषाय लगभग शान्त हो जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाता है, बारहवें में क्षीण हो जाता है। इस दृष्टि से उपशमन का मार्ग भी आत्मयुद्ध में बहुत ही सहायक होता है । उपशम में क्रोधादि कषायों की तथा रागद्वेषादि की वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं, दब जाती हैं, ठंडी पड़ जाती हैं। जैसे आग प्रज्वलित हो रही है, उस पर किसी ने राख डाल दी। अब आग राख के कारण दब गई है। वह अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उस पर नंगे पैर चलने वाले का पैर जला नहीं सकती। वह प्रभावहीन हो गई है। इसी प्रकार शमन या उपशम की प्रक्रिया है। इससे आते हुए कर्मों के आनव को रोका जा सकता है। अध्यात्म संवर में कर्मों का उपशम भी सहायक है। बृहत्कल्पसूत्र में इस सम्बन्ध में एक सुन्दर प्रक्रिया बताई है- संघ में किन्हीं दो साधकों में आपस में किसी बात पर मनमुटाव हो जाए, वाक्कलह हो जाए या क्रोधोत्पादक संघर्ष हो जाए तो तुरन्त ही हथेली पर पानी से भीगी हुई रेखा सूखे, उससे पहले ही परस्पर क्षमायाचना करके उस क्रोध, मनोमालिन्य या वाक्कलह को शान्त कर लें । मान लो, कोई दीक्षाज्येष्ठ साधु अपने से दीक्षा में छोटे साधु से क्षमायाचना करने को तत्पर है, मगर वह (छोटा साधु) उसे क्षमा प्रदान करने या उसे आदर देने, उसकी बात को मानकर कलह को रफादफा करने को तैयार नहीं है तो ऐसी स्थिति में बड़े साधु को चाहिए कि वह सामने से चलाकर छोटे साधु से क्षमायाचना करले, वह उसे आदर दे या न दे, उसे क्षमाप्रदान करे या न करे। क्योंकि जो उपशमन करता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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