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________________ - १.०३० कर्म-विज्ञान : भाग-२२ क्रमों का आम्रक और संवर (६) पिता के दिये हुए वचन के अनुसार सात को ४ बजे वह वेश्या के यहाँ पहुँचा। पहले तो उसने द्वार खोलने में हिचरमिचर की। ज्यों ही पैसे की मुलाम वेश्या ने दरवाजा खोला, उसका घिनौना रूप तथा जगह-जगह थूक और उल्टी के ढेर देखकर उससे खिंचाव की जगह उसे घृणा हो गई। बिना बात किये वह उलटे पांव लौट चला। वेश्या के यहाँ फिर कभी वह नहीं गया। जूआ दीवाली तक चला। दीवाली पर उसने बही खाते की जांच की तो पता लगा कि जुए के नाम ही नाम है,जमा तो बसए नाम है। यह देख उसके मुंह से निकल पड़ा'यह तो घाटे का व्यापार है, जानबूझकर धन गंवाना है। तब से उसने जुआ भी सदा के, लिए छोड़ दिया। .... .... ....... इस कहानी में पिता को दिये हुए वचन का एक नियंत्रण था, पुत्र की वृत्तियों पर। एक बार थोड़ा-सा नियंत्रण वृत्तियों पर आया, किन्तु होश में आने पर, विवेकपूर्वक चिन्तन करने पर वह नियंत्रण अवचेतन मन पर छा गया। फलतः भीतर से भी वे बुराइयाँ बन्द हो गई, और बाहर से भी उन पर ताला लग गया। यद्यपि अवदमन या दमन का यह प्रकार इतना अच्छा नहीं, किन्तु यह उपाय प्रायः कारगर साबित होता अध्यात्म विज्ञान के क्षेत्र में भी दमन की प्रक्रिया बतलाई गई है। पर वहाँ राज्या, समाज, संघ या परिवार आदि द्वारा दमन (दवाब) की प्रक्रिया को अच्छी नहीं माना है। • वहाँ परदमन की अपेक्षा आत्मदमनं (स्वेच्छा से अपने आप पर नियंत्रण) को श्रेष्ठ माना है। इस सम्बन्ध में स्थानांग सूत्र में एक चीमगी भी आत्मदमन को श्रेयस्करता को सिद्ध करने के लिए दी गई है-चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं-(6) जो अपना दमन करता है,पर का दमन नहीं। (२)जी पर का दमन करता है; किन्तु आत्मदमन नहीं करता, (३) जो आत्म दमन भी करता है और पर दमन भी करता है, (४) जो आत्म दमन भी नहीं करता और परदमन भी नहीं करता : .. ____ उत्तराध्ययन सूत्र में परदमन अर्थात्-दूसरे के द्वारा दमन अथवा दूसरों के दमन की अपेक्षा स्वेच्छा से आत्मदमन को श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है-"अपनी आत्मा का ही दमन करना चाहिए। आल-दमन करना ही कठिन है। दान्त झात्मा इस लोक और परलोक में सुखी होता है। दूसरों के (कोअथवा समाज, परिवार, राज्य आदि के) द्वारा बन्धनों और वध (मारपीटताइन-तर्जन आदि) ले दमन किया जाऊँ, इससे तो अच्छा है १. सोलह कारण भावना (महात्मा भगवानदीन) से संक्षिप्त २. "चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता, तजहा-आयंदमे णासमेगै णो परदमे, परंदमे णाममेगे णो आयंदमै, एगे आयी विपरेदमे वि। एमे णो आयदमे, जो पर दमे -स्थानांग, स्था. ४, उ. २, सू. २६२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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