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________________ 30060888888888888 3333 प्रकाशकीय बोल “धर्म और कर्म" अध्यात्म जगत के दो अद्भुत शब्द हैं, जिन पर चैतन्य जगत की समस्त क्रिया/प्रतिक्रिया आधारित है। सामान्यतः धर्म मनुष्य के मोक्ष/ मुक्ति का प्रतीक है और कर्म, बंधन का। बंधन और मुक्ति का ही यह समस्त खेल है। प्राणी/कर्मबद्ध आत्मा, प्रवृत्ति करता है, कर्म में प्रवृत्त होता है, सुख-दुख का अनुभव करता है, कर्म से मुक्त होने के लिए फिर धर्म का आचरण करता है, मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। ___ “कर्मवाद" का विषय बहुत गहन है, तथापि कर्म बन्धन से मुक्त होने के लिए इसे जानना भी परम आवश्यक है। कर्म सिद्धान्त को समझे बिना धर्म को या मुक्ति-मार्ग को नहीं समझा जा सकता। - हमें परम प्रसन्नता है कि जैन जगत के महान मनीषी, चिन्तक/लेखक उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज ने “कर्मविज्ञान" नाम से यह विशाल ग्रन्थ लिखकर अध्यात्मवादी जनता के लिए महान उपकार किया है। यह विराट् ग्रन्थ लगभग २५00 पृष्ठ का होने से हमने चार भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में कर्मवाद पर दार्शनिक एवं वैज्ञानिक चर्चा है तथा दूसरे भाग में पुण्य-पाप पर विस्तृत विवेचन है। तृतीय भाग में आम्नव एवं संवर पर तर्क पुरस्सर विवेचन है। प्रथम भाग का प्रकाशन पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज की ८१ वीं जन्म-जयंती के प्रसंग पर किया जा चुका है। द्वितीय भाग भी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत हो चुका है। तथा तृतीय भाग पाठकों के कर-कमलों में पहुंच रहा है। पहले द्वितीय भाग के तीन खण्ड एक साथ छापने का विचार था। परन्तु छपने पर पुस्तक लगभग एक हजार पृष्ठ से भी बड़ी हो गई। इस कारण चौथा, पांचवा खण्ड भाग-२ में तथा छठा खण्ड भाग ३ में जिल्द किया गया है। पृष्ठ संख्या भाग-२ से आगे ५३९ से चालू रखी गई है। पाठक भाग ३ का ५३९ से अनुसंधान करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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