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________________ १000 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६) जाती है। बार-बार दिया हुआ आत्मस्वरूप का उपदेश भी वह रुचिपूर्वक सुनता मानता नहीं, न ही हृदयंगम करता है। वह आत्मज्ञानी होने का दावा करता है, परन्तु उसका आत्मज्ञान पुस्तकों और ग्रन्थों से किया हुआ औपचारिक होता है, निष्ठायुक्त नहीं होता यथार्थ आत्मज्ञान होता तो वह असंयम में, लोभ-मोहादि कर्मानवों के जाल में नहीं फंसता; वह अध्यात्म संवर को अपना कर अपनी अध्यात्म सम्पदा की उसी प्रकार रक्षा करता; जिस प्रकार सामान्य मनुष्य अपने प्राण, जीवन एवं धन आदि की रक्षा करने में जी-जान से प्रयत्न करते हैं। ____ 'योगवाशिष्ठ' में बताया गया है कि "जिसने जानने योग्य (आत्मा और उससे सम्बन्धित गुणों) को जान लिया और विवेक दृष्टि प्राप्त कर ली, उस आत्मज्ञानी (प्राज्ञ) व्यक्ति को शरीर और मन के कष्ट उसी प्रकार दुःखी नहीं कर सकते, जिस प्रकार वर्षा से भीगे हुए जंगल को अग्नि नहीं जला सकती।" । ___“आत्मज्ञानी मनुष्य को सांसारिक बन्धनों में जकड़े हुए, वासना और कामना से जनित कष्टों को सहते, रोते-कलपते मनुष्य अत्यधिक क्षुद्र (जैनदर्शन की भाषा में, बहिरात्मा) परिलक्षित होते हैं। ____ इसीलिए योगवाशिष्ठ में कहा गया है-आत्म प्रज्ञा प्राप्त विवेकवान् योगी संसार में शोकाकुल (आर्तरौद्रध्यान पीड़ित एवं विभिन्न कर्मानवों को आमंत्रित करने वाले) मनुष्यों को उसी प्रकार देखता है, जिस प्रकार पर्वत की चोटी पर खड़ा मनुष्य पृथ्वी पर नीचे चलते या खड़े हुए मनुष्यों को देखता है।' ' यही अन्तरात्मा की भूमिका है। अन्तरात्मा का मुख परमात्मा की ओर होता है। आत्मज्ञान से विकास की और अज्ञान से विनाश की सम्भावनाएँ वस्तुतः जहाँ आत्मज्ञान में विकास की या अध्यात्म संवर में उत्तरोत्तर प्रगति की समग्र सम्भावनाएँ विद्यमान हैं, वहाँ अज्ञान में उत्तरोत्तर उतनी ही पतन की पराकाष्ठा है। इसी दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र में विद्यावान् पुरुषों को अपने लिए दुःखों की सृष्टि करने वाले कहा गया है। जन्म-मरणादि के नाना दुःख अज्ञान के ही फल हैं। अज्ञान के कारण ही मोह, मिथ्यात्व, विपरीत दृष्टि,आशंका, आसक्ति, रागद्वेष आदि होते हैं और उनसे कर्मों की बाढ़ आकर जीवन को घेर लेती है। इसीलिए महाभारत में अज्ञान को आत्मा का महाशत्रु बताते हुए कहा गया है"हे राजन्! इस संसार में आत्मा का सबसे भयंकर शत्रु एक ही है-अज्ञान। इससे बढ़कर १. (क) "प्राझं विज्ञातविज्ञेयं सम्यग्दर्शनमाधयः। न दहन्ति वन वर्षासिक्तमग्निशिखा इव॥" -योगवाशिष्ठ (ख) प्रज्ञा-प्रसादमारुह्याशुष्यः शोचतो जनान्। तमिष्ठानिव शैलस्यः सर्वान् प्राज्ञोऽनुपश्यति। ' -योगवाशिष्ठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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