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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९९९ देवी भागवत के अनुसार उस समय काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य आदि विकार भी उसके आत्मज्ञान में, आत्मज्ञान को क्रियान्वित होने में बाधक बन जाते हैं । " अधिकांश आत्मज्ञान की निष्ठा में कच्चे और स्वानुभवशून्य व्यक्ति उस समय बहिरात्मा बनकर आत्मबाह्य भावों- परभावों और विभावों को ही प्रश्रय देने लगते हैं। वे अध्यात्मसंवर का पथ छोड़कर आम्रवों के ही उपार्जन करने में लग जाते हैं। आचारांग सूत्र में आत्मज्ञान की निष्ठा से हीन व्यक्तियों की करुणदशा का चित्रण दो रूपकों द्वारा किया गया है। उसका सारांश यह है कि “संसार रूपी एक महाहद है, उसमें प्राणी एक कछुआ है। कर्मरूपी अज्ञान- शैवाल से ढके हुए महाहद में किसी समय शुभसंयोग से सम्यक्त्वरूपी छिद्र (विवर) हो जाने से कछुएरूप प्राणी को विशाल चमकता हुआ निर्मल आत्माकाश शान्ति आनन्द आदि नक्षत्रों सहित दिखाई दिया। इससे उसकी प्रसन्नता तो बढ़ी, किन्तु वह उस आत्माकाश को भली-भांति जानने-देखने के लिए कहाँ रुका नहीं। अपने परिवार के मोहवश उन्हें बताने के लिए वहाँ से चल दिया, और उन्हें अपनी असामान्य उपलब्धि की बात बताई, किन्तु वापस उन्हें साथ लेकर जब लौटा तो उसे वह सम्यक्त्वरूपी (आत्मज्ञान का प्रारम्भिक ) छिद्र नहीं मिला । आत्मज्ञानरूपी निर्मल आकाश नहीं दिखाई दिया। उस पर पुनः मोह, अज्ञान आदि का शैवाल छा गया। यही करुण स्थिति आत्मज्ञानहीन व्यक्ति की होती है। आत्मज्ञानहीन व्यक्ति वृक्ष की तरह स्थिति स्थापक, आत्मिक उत्क्रान्ति परायण नहीं दूसरा रूपक वृक्ष का दिया है कि वृक्ष सर्दी, गर्मी, आँधी, वर्षा आदि अनेक प्राकृतिक आपत्तियों तथा उसके फल-फूल तोड़ने के इच्छुक अनेक लोगों द्वारा पीड़ा, यातना, प्रहार आदि के कष्टों को सहता हुआ अपने स्थान पर स्थित रहता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानहीन मानव आधि, व्याधि, उपाधि तथा दैहिक, दैविक दुःखों को अज्ञानवश बरबस सहता है, समभाव एवं अध्यात्मज्ञान न होने से मानसिक पीड़ाएँ, व्यथाएँ पाता है, फिर भी अपनी उस अज्ञानरूपी दशा को छोड़ नहीं पाता। वह पारिवारिक, सांघिक एवं सामाजिक मोहवश उन्हीं में रचा-पचा रहता है। आत्मज्ञान की निष्ठा के अभाव में उसकी दशा वृक्ष के समान स्थिति स्थापक की-सी हो १. (क) अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७९ से भावांश ग्रहण पृ. ७ (ख) तत्प्रत्यूषः षडाख्यातायोगविघ्नकराऽनघ ! कामक्रोधौ लोभ मोही मद-मात्सर्य संज्ञकी ॥ - देवी भागवत ७/३५/३ २. आचारांग श्रु. १ अ. ६ उ. १ का से बेमि-से जहा वि कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छण्णपलासे, उम्मुर्ग से गोलभति । भंजगा इव सन्निवेसं नो चर्यति, सूत्र १७९ की व्याख्या, पृ. १९४ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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