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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९८१ श्रेष्ठी ने उनसे निवेदन किया कि, "क्या ऐसा हो सकता है कि आपने जो जो जाना है उन सबका मूल आधार ही मुझे प्रदान करने का अनुग्रह करें ?" महायाजक असमंजस में पड़ गये और शनैः शनैः सिर हिलाते देखकर श्रेष्ठी ने उन्हें समझाने के लिए उनके समक्ष घर में प्रयुक्त होने वाले अनेक बर्तन और उपकरण प्रस्तुत करते हुए कहा- "देव ! क्या इन सबको एक ही रथ में भरकर नहीं ले जाया जा सकता ?" शाल्यनेक की आँखें खुल गई। उन्होंने नई चेतना अनुभव की और कहा "ऐसा हो सकता है। एकमात्र आत्मज्ञान के समुद्र में ज्ञान की समस्त सरिताओं का समावेश हो सकता है। मैं अब उसी को उपलब्ध करूँगा, और प्राप्त करने के पश्चात् ही आपको ज्ञान दीक्षा प्रदान करने का साहस करूँगा।”” श्रमण भगवान् महावीर ने इसी तथ्य को अनावृत करते हुए कहा - "जो व्यक्ति अध्यात्म (आत्मस्वरूप-चेतन के स्वरूप) को जानता है, अथवा आन्तरिक जगत् को या. जीव की मूलवृत्ति ( सुखशान्ति की भावना) को जानता है, वह बाह्य को अर्थात् जड़-जगत् या बाह्य जगत् के स्वरूप को जानता है; इसी प्रकार जो बाह्य को भलीभाँति जानता है, वह अन्तरंग को भी सम्यक् जानता है।"२ आत्मज्ञान जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है सचमुच, आत्मा को भलीभाँति जान लेना, अध्यात्मसंवर की पगडंडी पर मुस्तैदी से कदम रखना है। यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। दशवैकालिक सूत्र में भी इसी 'तथ्य का समर्थन किया गया है - जो व्यक्ति जीवों (आत्माओं) को जानता है और अजीवों (आत्म बाह्य पदार्थों) को भी जान लेता है, इस प्रकार जीव और अजीव का ज्ञाता ही संयम (अध्यात्म संवर) को जान सकता है। इन दोनों के सम्यक्ज्ञान का परिणाम यह होता है कि वह समस्त जीवों की बहुविध गति को, फिर उस गति के प्राप्त होने के कारणभूत तत्त्वों - पुण्य-पाप (आन) और बन्ध को तथा उनसे मुक्ति का उपाय जान लेता है। फिर वह दिव्य एवं मानुष कामभोगों से विरक्त हो जाता है। अर्थात् वह तथाविध सम्यक् आत्मज्ञान के फलस्वरूप अपने आपको विषयभोगों के जाल में, तथा बाह्य आभ्यन्तर संयोगों के जाल में नहीं साता, शीघ्र ही उन बाह्यान्तर संयोगों से विरक्त, अलिप्त एवं अनासक्त हो जाता है। अखण्डज्योति, जुलाई १९७७ से जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाण । जे बहिया जाणइ से, अज्झत्थं जाणइ । - आचारांग १/१/४ देखें दशवैकालिक सूत्र, अ. ४ गा. १३ (जो जीवे वि वियाणे....... . से लेकर १६वीं गाया तया निर्विदए भोए तक का पाठ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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