SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) अध्यात्मशक्तियों का प्रयोग अध्यात्मसंवर में हो तभी आत्मानुभव ___ यही स्थिति श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय के माध्यम से आत्मा के द्वारा किये गए शब्द, गन्ध और स्पर्शरूप बाह्य विषयों के रसास्वादन से उत्पन्न बाह्य अनुभूतियों की है। परन्तु अन्तर् में डुबकी लगाकर आध्यात्मिक संगीत के शब्द, अध्यात्म सौरभ एवं आत्मिक स्पर्श का तथा उनके स्रोतों का तथा उन आन्तरिक अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाने वाले ज्ञान तन्तुओं में चलने वाली जैविक विद्युत (प्राण-ऊर्जा की तैजस) धारा के सम्बन्ध में तनिक भी परिज्ञान नहीं करती। स्पर्शेन्द्रिय के माध्यम से होने वाली कामक्रीड़ा में रस और आनन्द तो आता है, परन्तु उस रस की क्षणिक तृप्ति और क्षणिक विषयानन्द के पश्चात् गहन दुःख और संताप होता है, इसे जानकर भी आत्मा नहीं जानना चाहता। वह पाँचों इन्द्रियों के विषयों में अन्धा बनकर विभिन्न बाह्य अनुभूतियों और विषयसुखों को ही सर्वस्व मानता है। अपनी आन्तरिक निजी अध्यात्म शक्तियों का अध्यात्म-संवर में प्रयुक्त करने की जानकारी नहीं करता। अध्यात्मसंवर से विमुख क्यों? ____ कतिपय व्यक्तियों की बुद्धि संसार की अनेकानेक भौतिकं जानकारियों या ज्ञान विज्ञान से समृद्ध होती है। किसी-किसी की अध्ययनशीलता और ज्ञान-सम्पदा को देखकर दाँतों तले अंगली दबानी पड़ती है। फिर भी उन आत्माओं को अपनी आत्मसत्ता, आत्मिक ज्ञान-सम्पदा और आत्मिक शक्तियों तथा आत्मिकं लक्ष्य के सम्बन्ध में बहुत ही स्वल्प ज्ञान होता है। पुस्तकों और ग्रन्थों के श्रवण एवं पठन से आत्मा के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब तक वह आत्मनिष्ठालक्ष्यी अथवा दूसरे शब्दों मेंअध्यात्म-संवरलक्ष्यी, नहीं होता तब तक वह ज्ञान कच्चा और पल्लवग्राही समझना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों की श्रद्धा और निष्ठा आत्मस्पर्शी नहीं होती। आत्मज्ञानरूपी समुद्र में समस्त ज्ञान-सरिताओं का समावेश सम्भव महायाजक शाल्वनेक ने अनेक विद्याएँ प्राप्त करके अपने मस्तिष्क में संगृहीत कर ली थीं। एक बार श्रेष्ठी उदयन के यहाँ अनायास ही उनका आगमन हुआ। महायाजक ने अपनी अनेक संगृहीत विद्याओं का परिचय देते हुए श्रेष्ठी से कहा-“आप इनमें से जिसमें भी रुचि रखते हों, उस सम्बन्ध में मुझसे पूछे और ज्ञान प्राप्त करें।" १. (क) अखण्डज्योति, अप्रैल १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. ५० (ख) रसो वै सः । -उपनिषद् २. अखण्डज्योति नवम्बर १९७३ से भावांश ग्रहण पृ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy