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________________ ९७० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) सुखी जीवों श्वास - क्रिया बहुत ही देर से, दुःखी जीवों की बहुत जल्दी : शास्त्रीय प्रमाण प्रज्ञापनासूत्र के उच्छ्रासपद में निरूपित एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के, तथा पंचेन्द्रिय जीवों में नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के एक श्वास लेने के बाद दूसरा श्वास लेने के विरहकाल ( व्यवधान काल ) बताने का एक रहस्य यही है कि जो जीव जितने अधिक, अधिकतर या अधिकतम क्लिष्ट, क्रोधादि आवेशों से ग्रस्त, चिन्ता, शोक, भय आदि से व्यथित और दुःखी होते हैं, उन जीवों की श्वासोच्छ्वास क्रिया उतनी ही अधिक और शीघ्र चलती है। नारकीय जीवों जैसे अत्यन्त दुःखी जीवों के तो यह क्रिया सतत् अविरतरूप से चलती हैं। इसके विपरीत जिनके क्रोधादि कषायों के आवेश जितने अधिक शान्त, स्थिर होते हैं, जिनकी लेश्याएँ जितनी प्रशस्त होती हैं, जिनके लोभ, परिग्रह, अहंकार आदि. जितने-जितने कम होते हैं, उनके मानसिक संक्लेश उतने ही कम होने से वे सुखी होते हैं। तदनुसार जो जीव जितने जितने अधिक अधिकतर और अधिकतम सुखी होते हैं, उनकी श्वासोच्छ्रास क्रिया उत्तरोत्तर देर से चलती है। अर्थात् उनका श्वासोच्छ्वासविरहकाल उतना ही अधिक, अधिकतर और अधिकतम है। जैसे कि सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव अधिकतम सुखी होते हैं, क्योंकि पांच अनुत्तर विमानवासी देवों के कषाय उपशान्त होते हैं, विषयवासनाएँ भी शान्त होती हैं, उनके परिग्रह और अभिमान भी अत्यन्त कम होते हैं। इसलिए वे अधिकतम सुखी होते हैं। उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है, इसलिए वे ३३ प्रक्षों में 'उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। यानी वे एक श्वासोच्छ्वास के बाद दूसरा श्वासोच्छ्वास ३ ३ पक्ष के बाद लेते हैं। इसी प्रकार जो तन-मन से स्वस्थ, शान्त और सुखी होते हैं, वे मानव या प्राणायाम-परायण योगी भी दीर्घकाल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। इसके विपरीत अस्वस्थ, ज्वरग्रस्त, अंतिकामुक, भोगी, अतिक्रोधी, अत्यहंकारी आदि संक्लिष्ट एवं दुःखी मनुष्य जल्दी-जल्दी श्वास लेते हैं। "" १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, सप्तम उच्छ्वासपद के 'प्राथमिक' से, प्रज्ञापना सूत्र. भा. १ (आ. प्र. स. यावर) पृ. ४९५ (ख) प्रज्ञापना सूत्र मलयगिरिवृत्ति पत्रांक २२०-२२१ (ग) तुलना करें - "गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीनाः । " Jain Education International स्थिति प्रभाव - सुख-ति-लेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः।” - तत्त्वार्थसूत्र अ. ४/सू. २२,२१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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