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________________ प्राणवल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९६९ प्राणायाम द्वारा स्थिर और शान्त किया जा सके तो मनोनिग्रह, मनःसंयम, चित्त-स्थिरता या मनःसंवर जैसा कठिनतम कार्य अत्यन्त सरल बन जाएगा। चित्तवृत्ति-प्रवृत्ति के दो रूप हैं-एक है चित्त की अस्थिरता-चंचलता और दूसरी है-विषय वासनाओं के पाशविक कुसंस्कारों की ओर रुझान। इन दोनों ही आसवकारिणी अवांछनीयताओं को रोकने, नियंत्रित करने पर ही मन-वचन-कायसंवर हो सकता है परन्तु प्रश्न यह है कि क्या विचारों से, तर्कवितर्क से, समझाने से, शास्त्रों के अध्ययन-मनन-श्रवण, निदिध्यासन से अथवा अन्य किसी दण्ड आदि प्रयोगों से चित्तवृत्ति पर नियंत्रण (निरोध) किया जा सकता है ? - योगविद्या के ग्रन्थों के पूर्वोक्त प्रमाणों और अनुभवों के आधार पर यही कहा जा सकता है, कि केवल इनसे चित्तवृत्तिनिरोध रूप संवर या मनःसंवर नहीं हो सकता। मनोनिग्रह या मनःशांन्ति हो सकती है श्वास को प्राणायाम द्वारा शान्त, संयत, नियंत्रित करने से। अशान्त मुद्रा में कषाय अधिकाधिक उत्तेजित होता है और उत्तेजित अवस्था में, श्वास भी तीव्र होगा। श्वास शान्त होगा तो मनोभाव भी शान्त होगा। मनोभाव अशान्त और चंचल हों तो शरीर में तनाव बढ़ जाएगा।जो साधक प्राणायाम द्वारा श्वास . को अधिकाधिक शान्त रखने का पुरुषार्थ करता है, उसके कषाय, आवेग, आवेश, तथा तनाव स्वतः शान्त हो जाते हैं। .... ..... श्वास तीव्र होने के कतिपय कारण और उसका परिणाम .. · श्वास के उत्तेजित होने, तीव्रगति से चलने, तेज होने के क्या-क्या कारण है? योगविज्ञान के आचार्यों ने इस पर गहराई से विचार किया है। जब शरीर में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है, तब श्वास स्वतः ही तेज हो जाता है। जब मनुष्य पर्वतारोहरण करता है, तब उसे अधिक ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती है, क्योंकि पर्वत पर चढ़ने में उसे अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। अधिक जोर लगाने, अधिक शक्ति खर्च करने, तथा प्रवृत्ति एवं श्रम बढ़ने से कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। फलतः ऐसे समय में पर्वतारोही का या अत्यधिक श्रम, अतिप्रवृत्ति आदि करने वाले का श्वास अपने-आप ही तीव्रगति से चलने लगता है। श्वास की गति में तीव्रता रहने से जीवन के शक्तिकोष (प्राणबल) का जल्दी ही हास हो जाता है। १. अखण्डज्योति अप्रैल १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ.४४ २. (क) महावीर की साधना का रहस्य से यत्किंचिद् भावांश ग्रहण, पृ. ६८ . ... (ख) अखण्डज्योति जून १९७४ से भावांश ग्रहण, पृ. २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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