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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास - बलप्राण- संवर की साधना ९६५ जिस स्थिति में पाँचों प्राण तथा दशों इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं, मन में प्रसन्नता आनन्द एवं उल्लास का अनुभव होता है, उस प्राणायाम को 'प्रसाद' कहते हैं। ये चारों प्राणायाम अवस्थाएँ श्वासोच्छ्वास- बल-प्राणसंवर (श्वाससंवर) से उपलब्धि की अवस्थाएँ हैं ।' मिथ्यात्वादि पाँच आनवों के निरोधरूप संवर और श्वाससंवर में कितना साम्य, कितना अन्तर ? योगविद्या के विविध आचार्यों ने विविध प्रकार के प्राणायामों द्वारा श्वास रूप प्राण का निरोध करने की बात पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने इसके बहुत ही लाभ शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से बताये हैं, जिनका उल्लेख हम पिछले पृष्ठों में कर आए हैं। किन्तु श्रमण भगवान् महावीर ने श्वास-निरोध, श्वास-संवर अथवा श्वासोच्छ्वास- बल-प्राण- संवर की बात नहीं कही, इसके पीछे क्या रहस्य है ? जहाँ तक भगवान् महावीर द्वारा अर्थरूप में प्रतिपादित शास्त्रों का निरूपण है, उन्हें पढ़ने तथा उनका परमार्थ, रहस्यार्थ एवं फलितार्थ समझने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि यह केवल भाषा का अन्तर है। किस व्यक्ति ने किस रूप में किस भाषा में किस अभिप्राय से क्या बात कही ?, यह समझते ही हमें आसानी से ज्ञात हो जाएगा कि सबका लक्ष्य एक है, फलितार्थ समान है। 'महिम्न स्तोत्र में इसी तथ्य को स्पष्टरूप से समझाया है कि मनुष्यों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं, वे अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सीधे टेढ़े मार्ग को ग्रहण करके चलते हैं। परन्तु जिस प्रकार विभिन्न स्रोतों एवं उद्गमस्थलों से निकली हुई नदियाँ १. श्रूयताम्मुक्तिफलदं तस्यावस्था चतुष्टयम् । ध्वस्तिः प्राप्तिस्तथा संवित् प्रसादश्च महीयते ॥ कर्मणामिष्टदुष्टानां जायते मल-संक्षयः । चेतसोऽपकषायत्व यत्र सा ध्वस्तिरुच्यते ॥ ऐहिकामुस्मिकान् कामांल्लोभ-मोहात्मकान् स्वयम् । निरुध्याssस्ते सदा योगी प्राप्तिः सा सार्वकालिकी ॥ अतीताननागतानर्थान् विप्रकृष्ट-तिरोहितान् । विजानातीन्दु-सूर्यर्क्ष- ग्रहाणां ज्ञानसम्पदा || तुल्य प्रभावस्तु सदायोगी प्राप्नोति संविदम् । तदा संविदिति ख्याता प्राणायामस्य सा स्थितिः || शान्ति प्रसाद येद्राऽस्य मनः पंच चावयवः । इन्द्रियाणीन्द्रियर्थाश्च स प्रसाद इति स्मृतः ॥ २. "रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल - नानापथजुण । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only - मार्कण्डेय पुराण -महिम्न स्तोत्र www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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