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________________ .. ९६४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) . .. : से बढ़कर और कोई तप (आभ्यन्तर तप) नहीं, इससे मलों की शुद्धि होती है, और ज्ञान का प्रकाश होता है।" जाबाल-दर्शनोपनिषद् में कहा है-“प्राणायाम से चित्त की शुद्धि होती है। चित्त शुद्ध होने से अन्तःकरण में (ज्ञान का) प्रकाश होता है और उस प्रकाश से आत्म-साक्षात्कार होता है।" अध्यात्म प्राणायाम की चार स्तर के रूप में चार स्थितियाँ इस प्रकार प्राणायाम की पहुँच अध्यात्मक्षेत्र के अतिमहत्वपूर्ण परतों तक है। उसे केवल शारीरिक, मानसिक व्यायामों का उपचार मात्र नहीं समझना चाहिए। अपितु उसे उच्चस्तरीय योग-साधन अथवा श्वासोच्छ्वासबल-प्राण-संवर (संक्षेप में श्वाससंवर') के योग्य साधन मानकर चलना चाहिए। वैदिक परम्परानुसार पुरश्चरण-अनुष्ठानों की सफलता के लिए पूर्वभूमिका के रूप में प्राणायाम की विशेष साधना कराई जाती है। प्राणायाम के द्वारा उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उसके चार स्तर बताते हुए मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है"प्राणायाम की मुक्ति (कर्ममुक्ति) फलदायिनी चार अवस्थाएँ सुनो ! वे क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) ध्वस्ति, (२) प्राप्ति, (३) संविद् और (४) प्रसाद।" , , जिस प्राणायाम से इष्ट (शुभ) और दुष्ट (अशुभ) कर्मों के मल का क्षय होता है, जिससे चित्त में अकषायत्व (कषायरहितता) की प्राप्ति होती है, वह प्राणायाम-साधना 'ध्वस्ति' कहलाती है।" "जिससे इहलौकिक और परलौकिक लोभ-मोहात्मक कामों (इच्छाकाम-मदनकामों) का योगी स्वयं निरोध करके आत्मभाव में सदाकाल के लिए आसीन हो जाता है, वह प्राप्ति नामक प्राणायाम अवस्था है।"'. जिससे अतीत, अनागत, दूरस्थ और तिरोहित पदार्थों या विषयों को जान लिया जाता है, जिससे चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्रों तथा सूक्ष्म दिव्य लोकों की ज्ञानसम्पदा प्राप्त हो जाती है, तथा उनके तुल्य प्रभाव हो जाता है, ऐसी स्थिति का नाम 'संविद्' है। १. (क) दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूना हि यथा मलाः ।। तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥ -मनुस्मृति (ख) यया पर्वतधातूना दहन्ते धर्मणान्मलाः। तयेन्द्रियकृताः दोषा दह्यन्ते प्राण-धारणात् ॥ -अमृतनादोपनिषद् (ग) प्राणायामो भवत्येवं पातकेन्धन पावकः। . . भवोदधि-महासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा॥ -योगसन्ध्या (घ) "तपे न पर प्राणायामात् ततो विशुद्धिर्मलाना, दीप्तिश्च ज्ञानस्य।” -पंचशिखाचार्य (ज) “प्राणायामेन चित्तं शुद्धं भवति सुव्रत! चित्तेशुद्धे शुचिः साक्षात् प्रत्यग्ज्योतिर्व्यवस्थितः॥” -जाबाल दर्शनोपनिषद् ६/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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