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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास बलप्राण-संधर की साधना ९६१ प्राणतत्त्व : सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों में घुला-मिला — कतिपय प्राणविद्यावेत्ताओं ने सूक्ष्म (तेजस) शरीर की नाड़ियों में प्रवाहित होने वाले शक्ति प्रवाह, को 'प्राण' तत्त्व माना है। जिस प्रकार रक्त और रक्तवाहिनी शिराओं का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रहने पर भी उनका स्वतंत्र अस्तित्व है, इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की नाड़ियों और उनमें प्रवाहित होने वाले प्राण तरंगों का एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हुए दोनों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व माना जाता है। प्राण-प्रवाह की दस धाराएं मानी गई हैं। जिनमें से पाँच नाभिदेश से ऊपर की ओर चलती हैं और पाँच नीचे की ओर। महत्व और उपयोगिता को देखते हुए प्राण के ऊर्ध्वगामी प्रवाह को प्राण और अधोगामी प्रवाह को उपप्राण कहते हैं। अध्यात्मक्षेत्रीय प्राणायाम का दूरगामी प्रभाव 'इस प्रकार. प्राणायाम तीनों शरीरों और उनसे सम्बन्धित सभी अवयवों पर प्रभाव डालता है। स्थूलशरीर में वह आरोग्य, स्फूर्ति, शक्ति, गति बढ़ाता है। सूक्ष्म शरीर में एकाग्रता, सन्तुलन, पवित्रता, साहसिकता, तेजस्विता-ओजस्विता आदि बढ़ाता है। और कारण (कार्मण) शरीर को प्राणसंवर के माध्यम से प्रभावित करता है, जिससे अन्तःऊर्जा बढ़ती है और अनायास ही कई लब्धियाँ, ऋद्धियाँ और विभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं। आरोग्यविज्ञानक्षेत्रीय प्राणायाम से अध्यात्मक्षेत्रीय प्राणायाम बढ़कर ६.' इस दृष्टि से आरोग्यविज्ञानक्षेत्रीय प्राणायाम की भी उपयोगिता है; परन्तु अध्यात्म-क्षेत्रीय प्राणायाम इससे भिन्न है। इसमें ब्रह्माण्डव्यापी प्राण की अभीष्ट मात्रा आत्मप्राण तक पहुंचाई जाती है। इस प्रकार उसकी स्थिति और सम्पदा बढ़ती है। फलतः भौतिक सफलताओं के साथ-साथ आत्मिक विभूतियों के समस्त अवरुद्धमार्ग खुल जाते 21 . आध्यात्मिक प्राणायाम के दो सप और उससे लाभ . - जिस प्रकार तालाब को वर्षा के विपुल जल का अनुदान मिलता है तो वह परिपूर्ण हो जाता है, किन्तु यह अनुदान न मिलने पर वह सूखता है और सड़ता जाता है। उस तालाब को स्वच्छ और भरापूरा रखने के लिए नये वर्षाजल की आवश्यकता रहती है। उसी प्रकार आत्मप्राण के सरोवर में ब्रह्मप्राण के प्रचुर प्राणजल का अनुदान पहुंचाया जाए, तभी वह स्वच्छ एवं परिपूर्ण रह सकता है। आत्मप्राण में ब्रह्मप्राण (ब्रह्माण्डव्यापी १.. अखण्ड ज्योति, जून १९७४ से साभार उद्धृत पृ.२४ २. अखण्डज्योति, मई १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. ७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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