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________________ ९६० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) गहरी सांस लेने से विभिन्न लाभ : पाश्चात्य डॉक्टरों की राय में ____ गहरी सांस लेने से श्वास-संवर का लाभ भी मिलता है, क्योंकि श्वास जितना धीमा और देर से, गहरा लिया जाएगा, उतना ही वह शान्त होगा, स्थिर होगा। श्वास शान्त होते ही मन भी शान्त और निश्चल होगा, इस प्रकार आसवों का सहज ही निरोध हो सकेगा। गहरी सांस लेने का एक लाभ यह भी है कि फेफड़े को जल्दबाजी की भगदड़ से थोड़ी राहत मिलती है और वह उस अवकाश का उपयोग रक्त को अधिक शुद्ध करने में कर सकता है। इससे हृदय पर भी कम बोझ पड़ेगा और वह अधिक निरोग रह सकेगा। डॉ. मेटनो का कथन है कि गहरी श्वसन क्रिया का प्रभाव मस्तिष्क पर भी पड़ता है। उन्होंने इससे स्मरणशक्ति की वृद्धि से लेकर प्रसन्नता में तन्मय रहने तक की विशेषता के लाभों को भी स्वीकार किया है। __डॉ. नोल्स लिखते हैं-गहरी सांस लेने की आदत मनुष्य को अधिक कार्य करने की क्षमता और स्फूर्ति प्रदान करती है। श्रमजीवियों को कठोर श्रम करना पड़ता है, उसमें उनकी शक्ति अधिक खर्च होती है, परन्तु वे जल्दी थकने की अपेक्षा देर तक बिना थके कार्य कर सकते हैं, और अपेक्षाकृत अधिक बलिष्ठ रहते हैं, इसका प्रमुख कारण है-कठोरश्रम करने के साथ-साथ फेफड़ों का अधिक काम करना और उस आधार पर रक्तशुद्धि का अधिक अवसर मिलना। इंग्लैण्ड का प्रख्यात फुटबाल खिलाड़ी ‘भिडलोथियन' अपने गर्वीले मन, स्वस्थ तन और फुर्तीलेपन का कारण गहरी सांस लेने के अभ्यास को ही बताता है। उसने इसे ही स्वास्थ संरक्षण और दीर्घ जीवन का सस्ता, किन्तु कार्यक्षम नुस्खा बताया है। प्राण और वायु दोनों कितने सम्बद्ध कितने भिन्न ? ___ निष्कर्ष यह है कि स्थूल शरीर में वायु-संचार के लिए फेफड़े प्रधानरूप से काम करते हैं। सक्ष्म शरीर में यह कार्य नाभिकेन्द्र को ही करना पड़ता है। प्रत्यक्ष शरीर नासिका द्वारा वायु खींचता-छोड़ता है, सूक्ष्म शरीर को उसके साथ प्राणतत्त्व का संचार करना होता है। अतः प्राण वस्तुतः वायु से भिन्न एक विद्युत्शक्ति है, जो ऑक्सीजन की भाँति वायु में घुली-मिली रहती है। श्वास-प्रश्वास के साथ ही उसका आवागमन भी होता रहता है। जैसे-समुद्र के पानी में नमक धुला-मिला रहता है, परन्तु समुद्रजल और नमक दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं, वैसे ही वायु के साथ प्राणतत्त्व घुला-मिला होने पर भी दोनों एक दूसरे से भिन्न स्तर के हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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