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९५८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६). इच्छानुसार प्रयुक्त किया जाए तो मानव अपने में सामान्य क्रियाशीलता से सौ गुनी क्रियाशीलता विकसित कर सकता है। ____ शारीरिक और मानसिक विकास को जादुई ढंग से प्रभावित करने वाले हार्मोन्स भी भाड़ी तंतुओं, श्वास-प्रश्वास लहरियों, तथा मांसपेशियों के आकुंचन-प्रसारण द्वारा अर्जित प्राणतत्त्व के प्रभाव से प्रभावित हो सकते हैं, जो किसी भी अन्य उपाय से, दवा-उपचार से प्रभावित नहीं होते। साथ ही शरीर के अन्तर्गत नाड़ी-गुच्छक, उपात्यिकाएँ, ग्रन्थियाँ, कोशिकाएँ तथा अवयवों की कार्य पद्धतियाँ भी निश्चित रूप से पूर्वोक्त प्रकार से प्रभावित की जा सकती हैं।' श्वास-प्रश्वास की गति बंद : सारे क्रियाकलाप बन्द
श्वास-प्रश्वास के चलने तथा खींचने-निकालने के घर्षण के साथ जीवन और उसके कार्यकलाप जुड़े हुए हैं। साधारण श्वास-प्रश्वास-क्रिया से जीवनयात्रा चलती है। जिस प्रकार घड़ी का पैण्डुलम हिलना बन्द हो जाता है तो घड़ी के सारे पुर्जे ठप्प हो जाते हैं, उसी प्रकार श्वास-प्रश्वास की गति बंद हो जाती है तो शरीर और उसके सारे अवयव, इन्द्रियाँ, मन आदि वहीं ठप्प हो जाते हैं। घर्षण बंद तो जीवन के सारे कार्यकलाप बंद। यही मृत्यु है। . . . शरीरयात्रा को चलते रहने योग्य प्राण तो श्वासोच्छ्वास के साथ हर किसी को मिला है। उसे व्यक्तिगत विद्युत्, आत्म-प्राण, जीवनी शक्ति एवं शक्ति ऊर्जा के रूप में
आंका जाता है। किन्तु श्वासोच्छ्वास के माध्यम से प्राणबल के सहारे से उसे सामान्य से आगे बढ़कर असामान्य मात्रा में ग्रहण और धारण करने की इच्छा होने पर साधक प्राणायाम-साधना का आश्रय लेता है, जो आगे चलकर श्वासोच्छ्वास-बल-प्राणसंवर, संक्षेप में-श्वास-संवर करने में सक्षम हो जाता है। शारीरिक दृष्टि से श्वासोच्छ्वासबल-प्राण की साधना
सामान्यतया प्राणायाम श्वास-प्रश्वास का एक व्यायाम प्रतीत होता है। स्वास्थ्य-संवर्धन के क्षेत्र में उसे 'फेफड़ों की कसरत' कहा जाता है। उसमें फेफड़े को मजबूत बनाने के लिए गहरी सांस (डीप ब्रीदिंग) लेने का विधान भी है। गहरी श्वास से लाभ, न लेने से हानि
गहरी श्वास-प्रश्वास-प्रक्रिया का मुख्य प्रयोजन यह भी है कि फेफड़ों में अधिक हवा भरी जाए, ताकि उनके कुछ भाग, जो पूरी सांस न लेने से निष्क्रिय एवं अशक्त पड़े
१. अखण्ड ज्योति सितम्बर १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. ३१-३० . २. यावद्वायुः स्थिरोदेहे, तावज्जीवनमुच्यते।
मरणं तस्य निकान्तिस्ततो वायुं निरोधयेत् ॥ ३. अखण्ड ज्योति जून १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. २५
-हठ. प्र. २/३
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