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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना. ९५७. हुएं ले चलना और ऐसे सुदूर क्षेत्र में फैंक देना, जहाँ से फिर लौटने की सम्भावना न हो। इस प्रकार के तीन संकल्प पूरक, कुम्भक और रेचक के साथ-साथ किये जाएँ तो उससे प्राणायाम का उद्देश्य सफल होगा। यद्यपि यह प्राणायाम प्रारम्भिक कक्षा का है, तथापि यह आध्यात्मिक प्राणायाम की उपलब्धि में परम सहायक होगा, जिसे जैन परिभाषा में 'श्वासोच्छ्वासबलप्राण-संवर' कहा जा सकता है। निष्कर्ष यह है कि इस प्राणायाम में उतनी ही मात्रा में सफलता मिलेगी, जितनी मात्रा में संकल्प में प्रखरता होगी। यदि ऐसे ही उथले मन से श्वास खींचते, रोकते और छोड़ते रहा जाए तो उसके क्रमबद्ध और तालबद्ध होने पर भी वह फेफड़ों का व्यायामभर हो सकता है। इस प्राणायाम का वह लाभ नहीं मिल सकता, जिसकी प्राणविद्या साधना में महिमा बताई गई - इस प्राणायाम की गरिमा यह है कि अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में फैले हुए प्राणतत्त्व (वाइटल फोर्स) का अधिकाधिक मात्रा में आकर्षित करना और मन के कतिपय संस्थानों को समर्थ एवं नियंत्रित बनाना। प्राणतत्त्व ही शरीर के सभी स्वसंचालित अंगों और संस्थानों को प्रभावित करता है शरीरशास्त्र की दृष्टि से स्व-संचालित श्वास-प्रश्वास-क्रिया 'वेगस नर्व' के द्वारा गतिशील रहता है। वेगस नर्व' का सीधा सम्बन्ध अचेतन मन से रहता है। इसे साधारण इच्छाशक्ति से घटाया, बढ़ाया, रोका या चलाया नहीं जा सकता। इसे संकल्पपूर्वक किये हुए प्राणायाम द्वारा आहृत (आकर्षित) प्राणतत्त्व ही प्रभावित कर सकता है। ___ इस क्रिया में सफलता मिलने पर प्राणतत्त्व का वेगस नर्व के माध्यम से सारे शरीर पर अधिकार होता चला जाता है। फिर श्वास के साथ प्राणवायु के आवागमन, तथा रक्त में से दूषित तत्त्व छाँटने और निकालने के अलावा एक नया आधार और मिल जाता है, वह है-श्वास से घुली हुई प्राणतत्त्व की विशिष्ट विद्युत् जिसका प्रभाव समस्त अंगों और नाड़ी-संस्थानों पर पड़ता है। स्व-संचालित नाड़ी संस्थान को प्राणतत्त्व से नियंत्रित कर लिये जाने पर नाड़ी तन्तुओं के सहारे प्राण की विलक्षण शक्ति किसी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष (सम्बन्धित) अवयव में भेजी जा सकती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध किये जा सकते हैं। शरीरशास्त्रियों का यह अनुभव है कि शरीर में रहने वाली क्रियाशक्ति से मस्तिष्कीय ज्ञानशक्ति का सामर्थ्य दसगुना अधिक है और उससे भी दसगुनी अधिक क्षमता स्वसंचालित नाड़ी-प्रक्रिया में है। अर्थात्-शारीरिक क्रियाशीलता की अपेक्षा स्व-संचालित क्षेत्रों में सौ गुनी अधिक शक्ति काम करती है। उसे यदि नियंत्रण में लेकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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