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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९५५ भावना और क्रियात्मक प्रखरता दोनों आवश्यक हैं, जो प्राणबल-संवर से प्राप्त हो सकती हैं। अधिक प्राणऊर्जा प्राणायाम प्रक्रिया से ही प्राप्त हो सकती है यह सत्य है. अत्यधिक सशक्तता प्राप्त करने के लिए साधक को अधिक प्राणऊर्जा की आवश्यकता रहेगी। जैसे-बड़ा कारखाना चलाने के लिए विशालकाय मशीनों को गतिशील बना सकने वाली बड़ी मोटर फिट करनी पड़ती है। छोटी मोटरें तो छोटी मशीनें ही चला पाती हैं; इसी प्रकार महत्त्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या आध्यात्मिक कार्य करने के लिए अधिक उच्चस्तरीय प्राण ऊर्जा (प्राणबल) की आवश्यकता पड़ती है। इतनी उच्चस्तरीय प्राणऊर्जा खाने-पीने या आग तापने जैसे प्रयत्नों से नहीं, वरन वहाँ से प्राप्त करनी होती है, जहाँ चेतना का श्वासोच्छास रूप घर्षणात्मक प्रयल तथा उससे प्रभावित एवं आकर्षित होकर लोक की छहों दिशाओं के पौद्गलिक पदार्थ इन दोनों को प्रभावित करने वाली क्षमता का उद्गम हो। कहना होगा कि वह आधार प्राणतत्त्व ही है; जो अन्तरिक्ष में प्रवाहित रहता है। उसी से घर्षण द्वारा आकर्षित किया जाता है-प्राण-बल जो संवर-साधक को जीवन के हर मोड़ पर उत्साह और पराक्रम प्रदान करता है। प्राणायाम के मुख्यतः दो उद्देश्य - इस प्रकार प्राणायाम के मुख्यतया दो उद्देश्य फलित होते हैं। प्रथम है-श्वास की गति का नियंत्रण करना, अर्थात्-श्वाससंवर या श्वास को शान्त एवं स्थिर करना और दूसरा है-विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त प्राणतत्त्व को आकृष्ट करके स्थूल (औदारिक) सूक्ष्म (तैजस) और कारण (सूक्ष्मतर-कार्मण) शरीर को अद्भुत शक्ति से ओतप्रोत करना। कार्मण शरीर के अन्तर्गत तीव्रगति से श्वास लेने से आयुष्य नामकर्म वशात् आयुष्य कम हो जाता है, जीवन का शक्तिकोष जल्दी ही समाप्त हो जाता है, और दीर्घजीवन सम्भव .. नहीं रहता। प्राणायाम से श्वास की गति पर नियंत्रण किया जाता है। - प्राणायाम का उद्देश्य श्वास के मार्ग से प्राणतत्त्व को अधिक मात्रा में आकर्षित करना और आत्मा में धारण करके अधिक सशक्त बनना है। श्वास और प्राण का गहरा सम्बन्ध जान लेना आवश्यक है। . . भौतिक विज्ञान के अनुसार हवा एक हलकी गैस है। उसके अन्तराल में बहुत-सी बहुमूल्य एवं महत्वपूर्ण वस्तुएँ समाई हुई हैं। दूध में घी रहता है, पर दीखता नहीं। फलों और वनस्पतियों में प्रोटीन, क्षार, चिकनाई, विटामिन आदि घुले रहते हैं, पर दीखते १. अखण्ड ज्योति जून १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. २६-२७ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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