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________________ ९५२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) भगवती सूत्र में प्राणी के जीवनधारणार्थ उच्छ्वासनिश्वास का वर्णन .. भगवती सूत्र में एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के श्वासोच्छ्वास तथा उससे सम्बन्धित पुद्गलों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से आहरण (आकर्षण-आहार) और अनाहरण (विकर्षण) के विषय में शंका-समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि (जीवित रहने के लिए) नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक के जीव यानी संसार के सभी प्राणी आभ्यन्तर एवं बाह्य उच्छ्वास (आनमन और उच्छ्वास) तथा आभ्यन्तर एवं बाह्य निःश्वास (प्राणमन एवं निश्वास) के रूप में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से पुद्गल-द्रव्यों को ग्रहण करते और छोड़ते हैं। तथा एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय, द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के आभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास एवं निःश्वास को हम जान-देख पाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रज्ञापना सूत्र में भी नारकों से लेकर वैमानिक जीवों तक के आभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास और निःश्वास के काल (स्थिति) का वर्णन किया गया है। ' इससे एक तथ्य तो स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी संसारस्थ प्राणी उच्छ्वास और निःश्वास (संक्षेप में कहें तो-'श्वास') के बिना जीवित, सक्रिय, शक्तिमान' और श्वासोच्छवास के रूप में चार, पाँच या छह दिशाओं के अमुक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शयुक्त प्राणबलवर्द्धक पुद्गलों के ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो सकता। . . . . इसके अतिरिक्त प्रज्ञापनासूत्र में उक्त उच्छ्वास-निःश्वास के विरहकाल की प्ररूपणा से यह भी ध्वनित किया गया है कि जो जीव जितना-जितना कषायों एवं रागद्वेष तथा अशुभ लेश्या से हीन है, सुखी है, वह उतने ही अधिक काल के अनन्तर उच्छ्वास-निःश्वास लेता है; क्योंकि तीव्र या द्रुतगामी श्वासोच्छ्वास अपने आप में दुःखरूप है, रोगोत्पादक है, अल्पायुकारक है।' श्वास के साथ आयु ही नहीं, विद्युत तत्त्व का भी आकर्षण और विकर्षण नैरयिक आदि जीवों द्वारा अपने अपने शरीर के अनुसार उच्छ्वास-निःश्वास के रूप में बहुत या अल्प पुद्गलों के आहरण (ग्रहण) और निहरण (त्याग) करने की बात जो भगवती सूत्र में कही गई है, वह वैज्ञानिकों के सिद्धान्त से हूबहू मिलती है। १. (क) नेरइयाणं भते! केवइयकालस्स आणमति वा पाणमति वा ऊससंति का नीससंति वा? जहा ऊसासपदे।" -भगवती. श. १, उ. १, सू. ६/१२ (ख) "तत्यण जे ते महासरीरा। अप्पसरीरा........ते बहुतराए। अप्पतराए पोग्गले आहारेति.....परिणामेति, ऊस्ससति, नीससति......नौ सव्वे समुस्सास निस्सासा।" - -भगवती. श. १ उ. २, सू. ५-१ (ग) नेरइया.....जाव वेमाणियाणं भते! केवइकालस्स आणमेति वा पाण;ति वा ऊससति वा नीससति वा ? ... गोयमा! सततं से तयामेव। वेमायाए..........आ. पा. ऊ. नी. वा। ___-प्रज्ञापना सूत्र सप्तम उच्छवासपद सू. ६९३ से ७०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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