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________________ ९५0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) साथ आन्तरिक्ष से ब्रह्माण्डव्यापी प्राणतत्त्व एवं प्राणबलजनक पुद्गलों का अधिकाधिक मात्रा में आकर्षण विशिष्ट आन्तरिक ऊर्जा की उपलब्धि का सूचक है। ___ श्वासोच्छ्वास प्रक्रिया पद्धति के साथ प्राणबल-उपार्जक प्राणायाम एवं साधक की संकल्पशक्ति का समावेश होने से प्राणायाम सामान्य श्वास लेना न रहकर, विशिष्ट अन्तःऊर्जा की उपलब्धि का आधार बन जाता है। इसलिए प्राणायाम से सूक्ष्मरूप में संकल्प शक्ति का चुम्बकीय कार्य किया जा सकता है; जिसके आधार पर ब्रह्माण्डव्यापी प्राणतत्त्व को अभीष्ट मात्रा में खींच सकना, धारण कर सकना और दूषित-विकृत - प्राणवायु को बाहर निकाल सकना संभव होता है।' प्रश्नोपनिषद में समस्त बाह्यान्तःकरणों में विराजमान रहने की प्राण से प्रार्थना करते हुए ऋषि कहता है-“हे प्राण ! तेरा ही रूप वाणी में निहित है, तू ही श्रोत्र, नेत्र और मन में विद्यमान है। तू इन्हें कल्याणकारी बना। इस शरीर में ही विराजमान रह। इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वह सब तेरे ही अधीन है। तू माता-पिता के समान हम पुत्रों की रक्षा कर और हमें सम्पदाओं तथा विभूतियों से सम्पन्न कर।" . जीवनीशक्ति (लाइफ एनर्जी) रूप प्राणतत्त्व के छह प्रकारः वैज्ञानिकों की दृष्टि में इसी प्राणतत्त्व को वैज्ञानिकों ने लाइफ एनर्जी (जीवनीशक्ति - चेतन ऊर्जा) कहा है। भौतिक विज्ञान के अनुसार इस लाइफ एनर्जी के छह प्रकार माने जाते हैं-(१) ताप (हीट), (२) प्रकाश (लाइट), (३) चुम्बकीय (मैग्नेटिक), (४) विद्युत् (इलेक्ट्रीसिटी) (५) ध्वनि (साउंड) और (६) घर्षण (फ्रिक्शन) अथवा यांत्रिक (मैकेनिकल)। जैन दर्शन के अनुसार छह पर्याप्तियाँ लगभग इसी तथ्य का उद्घाटन करती हैं। ___ इसी षड्विध प्राणतत्त्व को प्राणायाम अथवा श्वासोच्छ्वास बलप्राण द्वारा अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध एवं विकसित किया जा सकता है और अपने व्यक्तित्व को ओजस्वी, तेजस्वी, ऊर्जस्वी, बनाया जा सकता है। इसके लिए स्थूल माध्यम नासिका-रन्ध्र होते हैं। जिनके आधार पर श्वास को अंदर खींचना और बाहर निकालना होता है। १. वही, जून १९७७ से, भावांश ग्रहण, पृ. २६ २. "या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता, या श्रोत्रे या च चक्षुषि। या च मनसि सन्तता शिवा, तां कुरु मोक्रमीः।। प्राणस्येदं वशे सर्व, त्रिदिवे यप्रतिष्ठितम्। मातेव पुत्रान् रक्षतस् श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि नः इति।" ३. अखण्ड ज्योति मार्च १९७७ से, पृ. ३१ -प्रश्नोपनिषद् २/१२-१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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