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________________ प्राणवल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९४९ सक्रियता से सम्पन्न होना है। ऐसे प्राणबल सम्पन्न व्यक्ति ही महाप्राण कहलाते हैं और वे अपने प्राणबल संवर की साधना के जरिये असंख्यों में प्राण फूंकने और मार्ग दर्शन करने में समर्थ होते हैं। वैज्ञानिकों की दृष्टि में प्राणशक्ति के कार्यकलाप मानव-शरीर में विद्यमान प्राणशक्ति से ही अन्तःसंचालन (एफरेण्ट) और नाड़ी संस्थान (नर्वस सिस्टम) अनुप्राणित होता है। मस्तिष्क में कल्पना, स्फुरणा, धारणा, इच्छा, स्मृति, प्रज्ञा, विवेक, विवेचना आदि समस्त शक्तियों का उत्पादन, संचालन एवं अभिवर्धन इसी प्राणशक्ति से होता है। शरीर, मन और इन्द्रियों को दिशा एवं क्षमता तथा गति-प्रगति प्रदान करने वाली अत्यन्त उत्कृष्ट एवं अतिसूक्ष्म सत्ता को भी प्राणशक्ति (वाइटल फोर्स) कहा जाता है। श्वास-प्रश्वासक्रिया तो उसका वाहन मात्र है, जिस पर सवार होकर यह महाशक्ति प्राणी के समस्त अवयवों में पूर्वकृत-कर्मानुसार पर्याप्ति के रूप में प्रवेश करती है और पोषण देती है। साहसिकता और क्रियाशीलता : आन्तरिक प्राणबल के परिणाम आपने देखा होगा कि कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ और मानसिक या बौद्धिक दृष्टि से सुयोग्य एवं सुशिक्षित होते हैं। किन्तु अन्तःकरण में प्राणशक्ति (वाइटल फोर्स) के रूप में साहस न होने से वे कोई भी महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाते। शंका-कुशंकाओं के असमंजस में पड़ी मन स्थिति में न तो उनसे कोई साहसिक निर्णय कर सकना बन पड़ता है और न ही उचित अवसर से लाभ उठाना सम्भव होता है। __इसके विपरीत प्राणायाम की श्वासोच्छ्वास बलप्राण-उत्पादक सूक्ष्मतम विधि से आन्तरिक प्राणबल प्राप्त करके मनस्वी व्यक्ति अपने समक्ष स्वास्थ्य, शिक्षा, साधन, सहयोग, अवसर आदि की प्रतिकूलताएँ और कठिनाइयाँ रहते हुए भी साहसिकता भरे कदम उठाते हैं और आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त करते हैं। प्राणबल-उपार्जक प्राणायाम से विशिष्ट अन्तःऊर्जा की उपलब्धि - प्राण संवर विद्या के अन्तर्गत किये जाने वाले विशिष्ट संकल्प शक्तियुक्त तथा प्रबल श्रद्धा-भावना से समन्वित प्राणायाम का सूक्ष्म प्रयोग करने से ऐसी साहसिकता, विशिष्ट कर्तृत्वक्षमता, सक्रियता तथा विशिष्ट व्यक्तित्व-सम्पन्नता आती है। अतः केवल श्वास और उच्छ्वास लेना-निकालना ही प्राणबल का सूचक प्राणायाम नहीं, अपितु श्वासोच्छ्वास की विशिष्ट तालबद्ध और क्रमबद्ध प्राणायाम प्रक्रिया के साथ श्वास के १. अखण्ड ज्योति जून १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. २८ . २. वहीं, जून १९७७ से, भावांश ग्रहण, पृ. २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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