SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मों का आसव : स्वरूप आर भेद ५५९ कर देना, अथवा निषेध न करने पर भी जो वस्तु जिस रूप में हो, उसे उस रूप में न कहकर उसके विषय में अन्यथा कथन करना असत् है। (२) गर्हित असत्य, यानी जो कथन सत्य होने पर भी दूसरे को मार्मिक पीड़ा पहुँचाता हो, वह दुर्भावयुक्त कथन भी असत् है। किसी कर्जदार के पास रुपया चुकाने को है, किन्तु साहूकार के द्वारा तकाजा किये जाने पर कह देना मेरे पास कुछ नहीं है, अथवा मेरे पर तुम्हारा कुछ भी बकाया नहीं है, या ऋण स्वीकार कर लेने पर भी इस प्रकार का वक्तव्य देना या झूठे (जाली) हस्ताक्षर बनाकर रकम भरपाई के कागजात प्रस्तुत कर देना, जिससे लेनदार सफल न हो सके, यह भी असत्य है। 'असत्' के द्वितीय अर्थ के अनुसार किसी काने, अंधे, रोगी या नपुंसक या विधवा को चिढ़ाने या नीचा दिखाने या उसको मर्मस्पर्शी हार्दिक पीड़ा पहुँचाने की दृष्टि से काना, अंधा, रोगी, हीजड़ा या रांड़ आदि कहना- सत्य होने पर भी असत्य है। किन्तु वास्तविकता प्रदर्शित करने की दृष्टि से काने को एकाक्षिक, अंधे को सूरदास या प्रज्ञाचक्षु, रोगी को व्याधिग्रस्त, नपुंसक को दुर्बलमना एवं विधवा को विधवा या मंगलमूर्ति कहना या लिखना प्रमत्तयोगयुक्त (अर्थात् कषाययुक्त या द्वेषादियुक्त) न होने से गर्हित असत्य दोष नहीं है। __ असत्य का त्याग या सत्यव्रत से बद्ध न होने से व्यक्ति क्रोधवश, भयवश, लोभवश, हास्यवश (हंसी-मजाक में) अथवा अहंकार प्रदर्शित करने हेतु, छल, कपट या धोखाधड़ी करने के लिहाज से असत्य बोलता है, असत्य सोचता है और असत्य आचरण करता है। जिस बात के विषय में शंका हो, अथवा जो बात निश्चित न हो, या : जिस बात को विपरीतरूप में समझा गया हो, वहाँ निश्चित रूप से अपनी बात को निश्चित सत्य होने का दावा करना भी असत्य है; क्योंकि यह सब कथन प्रमत्तयोगयुक्त होने से असत्य की कोटि में आते हैं। - असत् के पूर्वोक्त अर्थों के सन्दर्भ में सत्यव्रती (असत्य-त्यागवती) को निम्नोक्त बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-(१) प्रमत्तयोग का त्याग करना, (२) मन-वचनकाया से की जाने वाली प्रवृत्ति में एकरूपता रखना; (३) सत्य होने पर भी दुर्भावनावश अप्रिय, परपीड़क, मर्मस्पर्शी, हास्यवश न तो सोचना, न बोलना, न ही आचरण करना। (४) जो बात संदिग्ध हो, अनिश्चित हो, विपरीत हो, उसे भी पूर्ण सत्य होने का दावा करके न बोलना, (५) हिंसाकारी, छेदन-भेदनकारी, कठोर, भाषा न बोलना। असत्यअव्रत कषाययुक्त होने से वह भी अशुभकर्मानव तथा पापकर्मबन्धक है।' १. (क) असदभिधामनृतम् । “तत्त्वार्थ. ७/९ • (ख) तत्त्वार्यसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) पृ. १७६-१७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy