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________________ ५५८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) एक चिकित्सक की मनोभावना शुभ है, उसके वचन और काय से रोगी के ... प्राणहरण की प्रवृत्ति नहीं हो रही है, वह करुणा भावना से रोगी को स्वस्थ करने की शुभेच्छा से ऑपरेशन कर रहा है, किन्तु ऑपरेशन करते समय ही अकस्मात् कोई नस कट जाने से रोगी का प्राणान्त हो जाता है, ऐसी स्थिति में वह चिकित्सक हिंसा दोष का भागी नहीं माना जाता। किन्तु एक चिकित्सक लोभी है, वचन से तो रोगी को स्वस्थ कर देने का विश्वास दिलाता है, किन्तु उसकी मनोभावना तीव्र कषाय युक्त है; उसके पास रोगी की रखी हुई हजारों रुपयों की थैली को वह हजम करना चाहता है, इसलिए दुष्ट मनोभाव से दूषित काययोग से वह ऑपरेशन करता है और रोगी की मृत्यु हो जाती है। '' ऐसी स्थिति में वह डॉक्टर प्रमत्तयोगयुक्त होने से भावहिंसा और द्रव्यहिंसा दोनों के दोष का भागी है। फलतः पापकर्म के आनव और पापबन्ध से युक्त होता है। इसलिए पूर्वोक्त प्रथम चिकित्सक के दृष्टान्त पर से स्पष्ट है कि केवल प्राणनाश ऐसी पापानव बंधक हिंसा नहीं है; किन्तु प्रमत्तयोगपूर्वक प्राणनाश ही भावहिंसायुक्त होने से पापानव पापकर्म बन्धक है। इसके विपरीत एक चिकित्सक द्वारा रोगी के स्थूल प्राणनाश या पीड़ित करने का.. प्रयत्न होने पर भले ही रोगी का जीवन बच गया या आयुष्य बढ़ गया हो, या उसे सुख ही पहुँचा हो, किन्तु चिकित्सक की भावना अशुद्ध रही हो तो वह प्रमंत्तयोगयुक्त होने से भावहिंसा रूप दोष का भागी तथा पाप कर्मानव तथा पाप कर्मबन्धक ही समझा जाएगा। ____ अतः जिससे चित्त की कोमलता कम हो, कठोरता बढ़े तथा स्थूल जीवन की तृष्णा, सुखैषणा या वित्तैषणा बढ़े वहाँ हिंसा सदोष है, पाप कर्मानव जनक है, पाप कर्मबन्धक है। आचारांगसूत्र में यही कहा गया है-“इस प्रकार कर्म के कारण आदि को भलीभाँति जानकर सब प्रकार से वह किसी जीव की हिंसा नहीं करता। अव्रत का दूसरा अंग : असत्य : स्वरूप और विश्लेषण अव्रत का दूसरा अंग है-असत्य। इसका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार हैअसत् (झूठ) बोलना असत्य है। यद्यपि सूत्र में असत्-कथन को असत्य कहा गया है, तथापि उसमें असत् चिन्तन, असत्-भाषण और असत्-आचरण इन सबका समावेश समझ लेना चाहिए। यहाँ भी हिंसा के स्वरूप की तरह प्रमत्तयोगपूर्वक असत् चिन्तन, कथन और आचरण को ही असत्य का स्वरूप समझना चाहिए। 'असत्' शब्द के यहाँ मुख्यतया दो अर्थ फलित होते हैं-(१) जिस वस्तु का अस्तित्व हो, उसका सर्वथा निषेध १. तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) (पं. सुखलाल जी) पृष्ठ १७४-१७५ २. इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो से ण हिंसति। -आचारांग १/५/३/५३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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