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________________ प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९३१ था। उसके मुंह में उसकी माता आहार का कौर देती, पर वह पचता नहीं, सड़ता और दुर्गन्ध मारता था, खाया हुआ आहार रक्त और मवाद के रूप में बाहर निकल जाता था। उसकी काया में प्राणबल की अत्यन्त कमी थी ।" शरीर के साथ श्रेष्ठ निकृष्ट संहनन और संस्थान' की प्राप्ति का रहस्य भी यही है। यह तो ठीक, परन्तु कई लोग अनन्त सामर्थ्यो के पुंज मनुष्य शरीर को पाकर भी प्राणशक्ति को विकसित करने की अपेक्षा आहार-विहार के असंयम, असन्तुलन से इसकी सामान्य क्रियाशीलता का भी ह्रास कर देते हैं। जबकि आहार-विहार के नियमनसंन्तुलन द्वारा इस स्थूल शरीर की प्राणशक्तियों को जागृत, गतिशील एवं सुदृढ़ रखा जा सकता है। उससे परीषहजय, कषायविजय, संयम पालन तथा आध्यात्मिक विकास भलीभाँति किया जा सकता है। किन्तु बहुधा आम्नव परायण बुद्धिवादी लोग विविध तेज दवाइयाँ और नशीली वस्तुएँ शरीर में उड़ेलकर उसकी प्राणशक्ति को दुर्बल बना देते हैं। स्थानांग सूत्र में नौ कारणों से शरीर में रोगोत्पत्ति बताई जाती है - ( 9 ) अधिक बैठे रहने से या अधिक भोजन करने से, (२) अहितकर आसन से बैठने से या अहितकर (कुपथ्य) भोजन करने से (३) अधिक नींद लेने से, (४) अधिक जागने से, (५) उच्चार (मल) के आवेग को रोकने से, (६) प्रस्रवण (मूत्र) के आवेग को रोकने से, (७) अत्यधिक मार्ग गमन से, (८) भोजन की प्रतिकूलता (कुपोषक या अपोषक आहार) से और (९) इन्द्रिय-विषयों के कुपित होजाने से यानी कामादि के विकार से। ये नौ बातें भी प्राणशक्ति को क्षीण कर देती हैं। प्राणशक्ति, तितिक्षाशक्ति, एवं तैजस शक्ति को दुर्बल बना देती हैं। एक विचारक ने बताया है कि स्थूल शरीर की प्राणशक्ति का ह्रास निम्नोक्त सात बातों से होता है- (9) आहार-विहार-सम्बन्धी मर्यादाओं का उल्लंघन, (२) अत्यधिक या अत्यल्प परिश्रम करना, (३) अस्तव्यस्त दिनचर्या, (४) नशेबाजी, (५) कामवासना १. देखें- दुःखविपाक सूत्र प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का वर्णन २. (क) शरीर के ढांचे या रचना को संहनन और शरीर की ऊँचाई - लम्बाई, सुडौल - कुडौलपन को संस्थान कहते हैं। स्थानांगसूत्र के छठे स्थान में ६ संहनन इस प्रकार हैं- (१) वज्रऋषभनाराच, (२) ऋषभनाराच, (३) नाराच, (४) अर्धनाराच (५) कीलक और (६) सेवार्त संहनन (संघयण)। ६ संस्थान इस प्रकार हैं- (१) समचतुरस्र ( २ ) न्यग्रोध- परिमण्डल (३) सादि, (४) · कुब्जक, (५) वामन और (६) हुण्डक संस्थान । इनके विशेष स्वरूप के लिए तत्त्वार्थ भाष्य टीका आदि देखें। (ख) तुलना करें - "रूप-लावण्य-बल-वज्रसंहननत्वानि कायसम्पद् ।' Jain Education International - पातंजलयोगदर्शन पाद ३ सूत्र ४६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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