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________________ . ९३० कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मों का आम्नव और संवर (६) और न ही धर्मपालन करने, या संयमपूर्ण प्रवृत्ति करने में समर्थ हो सकती है। शरीर में प्राणशक्ति जब क्षीण या मन्द होने लगती है, तब उससे उठना-बैठना, चलना-फिरना या करवट बदलना भी कठिन हो जाता है। इसीलिए जैनशास्त्रों में प्राणशक्ति युक्त शरीर को उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकारपराक्रम में समर्थ बताया गया है। जब किसी साधक के शरीर में उत्थान कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषार्थ-पराक्रम मन्द पड़ जाता है, तब यह समझा जाता है कि उसके शरीर में प्राणऊर्जा अत्यन्त क्षीण हो गई है। फिर वह स्वयं अपने गुरु, आचार्य या दीक्षा ज्येष्ठ श्रमण के पास आकर निवेदन करता है-संल्लेखना संथारा (समाधिमरण के लिए. यावज्जीव अनशन) की आज्ञा के लिए। उस समाधिमरण-साधक के शरीर का वर्णन करते हुए शास्त्रकार उसके शरीर के प्रत्येक अंग की क्षीणता एवं दुर्बलता का विश्लेषण करते हैं। उसकी जांघें और टांगें. कौए के समान अत्यन्त पतली हो गई थीं। उसकी श्रवणशक्ति क्षीण हो गई थी। आँखें अंदर धस गई थीं। उसकी हड्डियाँ और नसें गिनी जा सकें, इस प्रकार से शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था। कोयले से भरी हुई गाड़ी के समान चलते समय उनकी हड्डियाँ खड़-खड़ करती थीं। इतना होते हुए भी राख से आच्छादित अंगारों के समान उनका चेहरा तप एवं तेज से देदीप्यमान था। अर्थात्-उनकी आन्तरिक प्राणऊर्जा इतनी बढ़ गई थी कि उनके मुख पर प्रसन्नता थी, उनकी आँखों में तेजस्विता थी, उनके चेहरे और भाल पर ओज था।' इस पर से स्पष्ट है कि शरीर की प्राणशक्ति तप और तितिक्षा से बढ़ती है, और विषय वासनाओं तथा कामभोगों में एवं मद्यपान, मांसाहार, चोरी, व्यभिचार, आदि पापकर्मबन्धक आनवों में शरीर को गलाने से शरीर की प्राणशक्ति का हास हो जाता है। यद्यपि पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुरूप प्राणी को यथायोग्य शरीर मिलता है, किन्तु पूर्वकृत पापकर्म प्रबल हों तो पशु-पक्षी, सरीसृप, जलचर या कीट पतंग आदि का शरीर मिलता है। मनुष्य शरीर भी मिलता है तो इन्द्रियहीन, अवयवहीन अथवा दुर्बल, अशक्त या टेढ़ामेढ़ा बेडौल मिलता है। उसे पूर्वजन्म कृत पापकर्मवश शरीरपर्याप्ति नहीं मिल पाती। शरीर में जितनी पर्याप्त प्राण की शक्ति होनी चाहिए, वह नहीं मिलती। मृगालोढ़ा (मृगापुत्र) ने पूर्वजन्म में बहुत ही भयंकर पापकर्म किये थे, जिसके कारण राजा का पुत्र होने पर भी उसे शरीर ऐसा मिला जो फुटबॉल की तरह गोल-मटोल १. देखें - (क) भगवती सूत्र द्वितीय शतक, उ. १ में स्कन्दक अनगार का समाधिमरण सम्बन्धी वर्णन (ख) अन्तकृतदशांग सूत्र वर्ग ८ में काली आदि साध्वियों का संल्लेखना संधारा से सम्बन्धित वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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