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________________ • ९०२ कर्म - विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) अमरकोष में पांच प्राणों के विभिन्न स्थानों का निर्देश भी इस प्रकार किया गया है - हृदय में 'प्राण', गुदा (मलद्वार) में 'अपान', नाभिमण्डल में 'समान', कण्ठप्रदेश में 'उदान' और 'व्यान' समग्र शरीर में व्याप्त है।' प्राण के अधिकाधिक प्रकट होने का प्रमुख केन्द्र : हृदय आयुर्वेद शास्त्र में प्राण का अर्थ किया गया है - जो प्रकर्षरूप से श्वास को अन्दर लाता - खींचता है, अथवा प्रकर्ष रूप से बल संचार करता है, शक्ति को आकर्षित करता है, वह प्राण है। शरीर में प्राण का सबसे प्रमुख एवं सर्वोत्कृष्ट स्थान हृदय है। हृदय ही ऐसा प्रमुख केन्द्र है, जहाँ प्राण अधिकाधिक मात्रा में प्रकट होता है। जहाँ हृदय अथवा योग की भाषा में अनाहत चक्र का स्थान है, वहाँ व्यक्तरूप से प्राण का संचरण सर्वाधिक मात्रा में होता है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक' में प्राण को ओज कहकर उल्लेख किया है - "हृदय ओज का परम (उत्कृष्ट) स्थान है। शरीर शास्त्र के अनुसार हृदय अपने साथ लगे हुए दो फेफड़ों (Lungs) के द्वारा प्राणवायु को बाहर से अन्दर की ओर ऑक्सीजन के रूप में ग्रहण करता है और अन्दर की दूषित वायु (कार्बन) को बाहर निकालता है। हृदय हवा भरने (पम्पिंग ) का काम भी करता है और हवा को बाहर निकालने (स्प्रेइंग) का काम भी । हृदय की धड़कन से शरीर में प्राणों की गतिविधि यथार्थ है या विपरीत, इसका ठीक-ठीक पता लगता रहता है। रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) उच्च है, निम्न है, अथवा नोर्मल (समतोल) है, इसकी जानकारी भी चिकित्सक लोग हृदय की धड़कन से लगा लेते हैं। हृदय में प्राणों की गति अवरुद्ध हो जाने से प्राणी को मृत घोषित कर दिया जाता है। प्राणों की गति में कहीं रक्त के गाढ़े होकर जम जाने से, कहीं फेफड़ों में कफ के जमा हो जाने से, या पित्त के प्रकोप से रुकावट आ जाती है।. १. (क) अखण्ड ज्योति मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ४४ (ख) प्राणोऽपानः समान श्चोदानो व्यान एव च । हृदि प्राणो, गुदेऽपानः समानो नाभिमण्डले । उदानः कण्ठदेशे स्याद् व्यानः सर्वशरीरगः ।” २. (क) आकर्षेण आनयति, प्रकर्षेण वा दरूपति, आकर्षति च शक्ति स प्राणः । (ख) तत्परस्योजसः स्थान । (ग) महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. ५८ Jain Education International - अमरकोष, प्राणिवर्ग For Personal & Private Use Only -चरक www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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