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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८८१ - श्री रामकृष्ण परमहंस ने एक अवसर पर अपने भक्त से मनःसंवर के सिलसिले में कहा-“सतत उनका नाम लो। इससे तुम्हारा सारा पाप, काम और क्रोध धुल जाएगा तथा दैहिक सुखों की लालसा दूर हो जाएगी।" ___ "प्रभुनाम में रुचि उत्पन्न करने के लिए उन्हीं से तीव्रता पूर्वक प्रार्थना करो"प्रभो ! आपके नाम में रुचि उत्पन्न हो, ऐसी कृपा करो। जब तुम अपने अन्तःकरण में प्रभुनाम के प्रति आकर्षण महसूस करो और तुम्हें अधिकाधिक आनन्द मिलने लगे, तो फिर डरने की कोई बात नहीं। तुम पर उनकी कृपा अधिकाधिक बरसेगी।" ____ जैसे-जैसे तुम्हारे हृदय में परमात्म-प्रेम बढ़ेगा, वैसे-वैसे सांसारिक सुख तुम्हें अलोने मालूम होंगे.........भक्तिपथ के द्वारा मन और इन्द्रियाँ शीघ्र और स्वाभाविकरूप से नियंत्रण में आ जाती हैं। प्रभु-प्रार्थना भी मन की शुद्धता और निरुद्धता में सहायक (१६) परमात्म-प्रार्थना का अभ्यास भी मन की शुद्धता और निरुद्धता में सहायक-परमात्मा को साक्षी रखकर अर्थात् उनके सानिध्य में प्रतिदिन नियमित समय पर तीव्रतापूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए। इससे मन की शुद्धि और सद्वृत्तियाँ उदित होंगी। मन की शुद्धता और निरुद्धता दोनों एक ही हैं। प्रार्थना का अभ्यास ज्यों-ज्यों तीव्र होगा, त्यों-त्यों उसका सुपरिणाम दृष्टिगोचर होगा। मनःसंवर साधक स्वयमेव अनुभव करेगा कि उसकी प्रार्थना का स्वरूप बदलता जा रहा है। पहले वह वस्तुकेन्द्रित थी, अब अधिक परमात्म-केन्द्रित हो गई है। प्रार्थना के द्वारा साधक की रुचि प्रभु से माँग करने की न होकर परमात्मा या शुद्ध आत्मा में ही समर्पित, तथा केन्द्रित होने की हो जाए तो समझना चाहिए मनःसंवर का अभ्यास दृढ़ होता जा रहा है। वीतराग परमात्मा के प्रति तीव्र भक्ति मनोनिग्रह में सर्वाधिक सहायक .. परमात्मा के प्रति प्रार्थना जब समर्पण भक्ति का, तदात्मता का रूप ले लेती है, तब परमात्मतत्त्व प्रबल शक्ति के रूप में साधक के भीतर खड़ा हो जाता है, और वह मनःसंवर की बाधक शक्तियों को आसानी से परास्त करने में समर्थ हो जाता है। मन की ऐसी अवस्था में आत्मिक आनन्द की उपलब्धि हो जाती है। साधक जब इस अवस्था में दृढ़तापूर्वक स्थिर हो जाता है, तब मनोनिग्रह अनायास ही सध जाता है। १. Sayings of Swami Ramakrishana, Saying 350 २. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण, पृ. १२४ ३. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण, पृ. १२४-१२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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