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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८७९ . (४) अपने मनोभावों को किसी अच्छी और प्रशंसनीय बात की ओर मोड़ दो। अच्छे विचार मन में प्रचुर मात्रा में घुसने पर वे प्रलोभनकारी अशुभ विचारों को बाहर खदेड़ देंगे। (५) जिन पर तुम्हारी गुरुवत् श्रद्धा हो, उनके समक्ष अपने हृदय को खोल दो। मन में जो भी प्रलोभनकारी दुर्भावनाएँ या असद विचारों की लहरें उठती हों, उन सबको उनके सामने खोल दो, और वे जो भी सुझाव, परामर्श या प्रायश्चित्त दें, तदनुसार अभ्यास करो। (६) इन सबके बावजूद भी (कामादि के) प्रलोभन बने ही रहें या सताते ही रहें; तो कुछ न करके, उनके विरोध में आवाज बुलन्द करते रहो। लगातार इन्कार करते रहने पर प्रलोभन भी किसी प्रकार का पापकर्म नहीं कर पाएंगे। जैसे जब तक कुमारिकाएँ ना कहती रहती हैं, तब तक उनका विवाह नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार जब तक तुम्हारा मन भी ना कहता रहेगा, तब तक वह किसी प्रकार का पाप (विकार) नहीं कर सकता है। हाँ, प्रलोभन लम्बे अर्से तक बने रह सकते हैं, पर वे कृतकार्य नहीं हो सकते।' सचमुच, मनःसंवर का प्रारम्भिक साधक यदि इन सुझावों को अमल में लाने का प्रयत्न करे और इस शक्तिशाली विरोधी विचारधारा की मन में उठती हुई लहर का सामना करे तो उसे शान्त कर सकता है। सतत नामजप का अभ्यास भी मनःसंबर में सहायक (१५) अनवरत नामजप भी मनःसंवर में सहायक-यदि अनवरतरूप से उस अवसर पर भगवान् को पुकारें या नाम-स्मरण करें तो कोई कारण नहीं कि पूर्वोक्त विरोधी विचार मन में घुसे और साधक के मन पर अधिकार करें, क्योंकि बीच में वहीं कोई व्यवधानरूपी छिद्र उक्त विरोधी विचारों के घुसने को नहीं रह जाता। - अतः पूर्वोक्त विरोधी विचार दल जब भी मन में उठने लगे तो, तुरन्त उसका सामना करने और उसे शान्त करने के लिए परमात्मभावना या शुद्धात्म-भावना का अधिक शक्तिशाली विस्फोट करना चाहिए। अथवा भगवान् का, किसी भी अभीष्ट नाम का या किसी मंत्र का स्मरण या जाप लगातार करते रहने से तथा परमात्मा या अपनी उच्चतर शुद्ध आत्मा को पुकारते रहने से मन में एक उच्चतर मनःसंवर का संवेग उत्पन्न किया जा सकता है; जो आपातकालिक स्थिति की बागडोर संभाल लेगा। मनोविजय या मनःसंवर के लिए यह अभ्यास भी लाभदायक है। १. वही, पृष्ठ २४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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