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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८७१ इसलिए मनःसंवर के साधक को हेय, ज्ञेय, उपादेय का श्रेय और प्रेय का, उचित-अनुचित का, हित-अहित का, शुभ-अशुभ और शुद्ध का, स्व-पर कल्याणअकल्याण का, तथा नित्यानित्य के विवेक करने का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। विवेक का अभ्यास आवेशपूर्ण, मूर्खता और मढ़ता से भरी गलत, सावध क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाली अशुभ आम्नव एवं बन्ध के फल से उपजने वाली मानसिक अशान्ति से मन की रक्षा करेगा तथा आत्मविकास में सहायक होगा। क्योंकि विवेक का अभ्यास आत्म-निरीक्षण के साथ ही चल सकता है।' मनोनिग्रह हेतु मन को शुद्ध एवं उचित प्रवृत्ति में केन्द्रित करना ... (६) मन को उचित वर्तन का अभ्यास कराओ-मनोनिग्रह या मनःसंवर के लिए मन को साधने हेतु विषयों से खींचकर एक विचार में केन्द्रित होने का अभ्यास कराया जाए। मन मानो एक उच्छृखल घोड़ा है, उसे सर्कस के घोड़े, हाथी आदि पशु की तरह बार-बार अपनी मनोनीत प्रवृत्ति में साध कर करतब प्रदर्शन सिखलाने चाहिए। इच्छाशक्ति द्वारा चंचल मन को संयत करके उसकी अनुचित प्रवृत्ति को रोककर उचित और शुद्ध प्रवृत्ति में केन्द्रित करना चाहिए। यह शुद्ध प्रवृत्ति शुद्ध आत्मा या परमात्मा के गुणों का चिन्तन है। मन को अपने से पृथक् समझने का अभ्यास करना मनःसंवर में सहायक .. (७) मन को अपने से अलग समझने का अभ्यास करो-स्वामी विवेकानन्द ने बताया कि चुपचाप बैठकर कुछ क्षण के लिए मन को जहाँ जाए, वहाँ जाने देना। फिर दृढ़तापूर्वक चिन्तन करना-“मैं (आत्मा) मन से भिन्न हूँ। मन को विभिन्न विचारों में विचरण करते हुए देखने वाला द्रष्टा व साक्षी हूँ।" इसके पश्चात् दृढ़तापूर्वक ऐसी संकल्पना करो कि “मन मेरे से बिलकुल भिन्न-पृथक् है। मैं ईश्वर (परमात्मा) से अभिन्न हूँ।", __इसके पश्चात् दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो-"मैं मन नहीं हूँ। मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ। मैं अपने मन तथा अपनी क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ।" . इस चिन्तन से प्रतिदिन मन और भावना से अपने को अभिन्न समझने का भाव कम होता जाएगा। यहाँ तक कि तुम अपने मन को बिलकुल अलग कर सकोगे, और वास्तव में इसे स्वयं से भिन्न जान सकोगे। "इतनी सफलता प्राप्त कर लेने के बाद मन तुम्हारा दास हो जाएगा और तुम उस १. मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण, पृ. ६८ २.. वही, पृ. ७0 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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