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________________ ८७0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मनःसंवर-साधना में सहायक चार भावनाएँ (४) मैत्री आदि चार भावनाओं का अभ्यास-मैत्री, प्रमोद (मुदिता), कारुण्य और माध्यस्थ्य (उपेक्षा) इन चार भावनाओं के दृढ़ अभ्यास से मन क्षुब्ध एवं चंचल नहीं होता। ये चारों भावनाएँ मनःसंवर में सहायक हैं। ___परहित-चिन्तन मैत्री है, दुःखी प्राणियों के प्रति सहानुभूति एवं अनुकम्पा की भावना करुणा है, गुणिजनों के गुणों को देखकर प्रसन्नता होना प्रमोद या मुदिता है और जो विपरीत आचार-विचार के, दुष्ट-दुर्जन एवं पापाचरण प्रवृत्त हैं, उनके प्रति उपेक्षा, या मध्यस्थता रखना माध्यस्थ्य भावना है। दूसरों के सुख में स्वयं सुखानुभव करने से अनुकूल मानसिक वातावरण तैयार होता है, जिससे ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ आदि असद्वृत्तियाँ दूर हो जाती हैं। दुःखियों के प्रति करुणा, सहानुभूति, सहृदयता, अनुकम्पा, दया या सेवा की भावना हृदय की संकीर्णता दूर करके विशाल बनाती है, तेरे-मेरे का भेदभाव, अहंता-ममता आदि असवृत्तियों को दूर करती हैं। गुणिजनों के प्रति प्रमुदितता अथवा शुभ के प्रति प्रसन्नता की भावना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उनके सद्गुणों तथा शुभत्व को अपने अंदर लेती है, आत्मसात् करती है। तथा विपरीत वृत्ति वाले या दुष्ट जनों के प्रति उपेक्षाभाव, तटस्थता या माध्यस्थ्य भाव रखने से तथा उनको सदबुद्धि प्राप्त हो, ऐसी मंगल भावना रखने से तथा उनकी अशुभ संगति-प्रवृत्ति से दूर रहने से व्यक्ति का मन क्षुब्ध नहीं होता, वह मन को संयत-संतुलित रख सकता है। मनःसंवर के साधक का चित्त निर्मल रहता है। वह घृणा, ईर्ष्या, अहंकार, द्वेष, विषमता, संकीर्णता आदि से कलुषित नहीं होता। मन की अशुभ से रक्षा करने हेतु विवेक का अभ्यास जरूरी (५) विवेक का अभ्यास-उचित-अनुचित को जाने-समझे बिना आवेश या आवेगपूर्वक, देखादेखी, अन्धविश्वास या स्वार्थ, मोह, लोभ आदि से प्रेरित होकर मनुष्य कई ऐसे कार्य कर बैठते हैं, जिनका परिणाम प्रायः कटु आता है। अथवा अनुकूल भी आता है तो वह आसक्ति और ममता के बन्धन में डाल देता है। इस अविवेक से मन अत्यन्त क्षुब्ध हो जाता है। (ख) तुलना करें-आम्रवनिरोधः संवरः। स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रैः। -तत्त्वार्थसूत्र अ. ९, सू. १, २ १. (क) मैत्री-करुणा-मुदितोपेक्षाणां सुख-दुःख-पुण्यापुण्य-विषयाणां भावनातश्चित्त-प्रसादनम्॥ -पातंजलयोगसूत्र पाद १ सू. ३३ - (ख) सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदम् क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममाऽत्मा विदधातु देव! -सामायिक पाठ श्लो. १ (ग) 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण, पृ. ६४-६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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