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________________ मनः संवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८५१ जन्म-मरण के चक्र को भलीभाँति जान कर दृढ़ता पूर्वक मोक्ष के अन्यतम साधन संवर-निर्जरारूप धर्म पथ पर संक्रमण करते हैं।" " इस प्रकार अप्रमत्त होकर जीवन पर्यन्त संवर साधना करने वाले, अनिवृत्तगामी ( पीछे नहीं लौटने वाले) साधकों का मार्ग यद्यपि दुरनुचर ( चलने में अतिदुष्कर) होता है, तथापि वह (विकट तपस्वी संवर साधक) संयमी तथा रागद्वेष विजेता होने से पराक्रमी तथा दूसरों के लिए अनुकरणीय आदर्श तथा मुक्तिगमन योग्य होता है। ऐसा व्यक्ति ब्रह्मचर्यनिष्ठ रहकर (तपश्चरणादिरूप संवर साधना से ) कर्मशरीर को धुन डालता है।" “ऐसे उत्कृष्ट संवर साधक काल (मृत्यु) सहज रूप से प्राप्त होने की (समाधि मरण की अभिलाषा (कांक्षा) से जीवन के अन्तिम क्षण तक मोक्ष मार्ग के साधनरूप मनःसंवर में उद्यम करते हैं।" "यह अहिंसा (तथा उपलक्षण से सत्यादि संवररूप) धर्म दृष्ट (प्रत्यक्ष) है, श्रुत (सुना हुआ है, तथा माना हुआ है) और तीर्थकरों द्वारा विशेषरूम से ज्ञात है। वह (अहिंसादिरूप संवर) धर्म शाश्वत है, ध्रुव है, शुद्ध है, नित्य है, खेदज्ञ वीतराग अर्हन्तों ने लोक को भलाभाँति जानकर इसका प्रतिपादन किया है। अतः यह (मनः संवर) भी अव्यवहार्य नहीं है। अतः मनः संवर ( से मोक्ष) साधना में उत्थित ( समुद्यत) होकर क्षणमात्र भी प्रमाद न करे।” दृढ़ इच्छाशक्ति पूर्वक अभ्यास करो तब मन अनुकूल हो जाएगा. इस वृहत् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ मनः संवर की साधना जाए तो जैसे मन के द्वारा मनुष्य बँधता है, वैसे ही मन के द्वारा वह मुक्त हो सकता है। रामकृष्ण परमहंस ने एक भक्त के साथ वार्तालाप करते हुए कहा था- "दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ अभ्यास करो। फिर देखोगे कि मन को जिस ओर ले जाओगे, उसी (क) इणमेव णायकखति, जे जणा धुवचारिणो । जाती-मरणं परिण्णाय, चरे संकमणे दढे ॥ (ख) दुरणुचरो मग्गो वीराणं अणियट्टगामीण (ग) एस पुरिसे दविए वीरे आयाणिज्जे विवाहिते । से धुणाति समुस्सयं वसित्ता बभचेरसि ॥ (घ) "कालस्स केखाए परिव्ययति ।" (ङ) दिट्ठे सुयं मायं, विण्णायं जमेय परिकहिज्जई । (च) उट्ठिए, नो पमायए । Jain Education International - आचा. १/२/३, सु. ७८ का विवेचन ' - वही १/४/४ सू. १४३ विवेचन वही, १/४/४ सु. १४३ विवेचन -वही १/५/५ सू. १६६ विवेचन एस धम्मे सुद्धे णिच्चे सासए समिच्च लोयं खेयन्नहिं पवेइए। -वही १/४/४३७, ४३० - यही ५/२ सू. १५२ विवेचन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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