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________________ ८५0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) मृत्युभय से मुक्त साधक ही परम मनःसंवर प्राप्त कर सकता है ___“वह शब्दादि विषयों के प्रति मन में आसक्ति या आसव के खेद (हार्द) को जानता है तथा अशस्त्र (मनःसंवर-संयमरूप) के खेद (हार्द-अन्तस्) को भी जानता है। ऐसा हिंसादि आम्नवों से विरत रहने वाला साधक वीर “आत्मगुप्त (आत्मरक्षक) और खेदज्ञ है।" ___आगे इसी शास्त्र में कहा गया है, “वह परमसंवर के प्रति एकनिष्ठ निष्कर्मदर्शी साधक मृत्युभय से सर्वथा मुक्त हो जाता है। मोक्ष पथ को भी वह देख चुका होता है।" . ___ "वह आत्मदर्शी साधक लोक (प्राणि जगत्) में मोक्ष या उसके कारण रूप मनःसंवर को देखता है। वह विविक्त (राग द्वेष रहित शुद्ध) जीवन जीता है। वह उपशाम्त, (पाँच समितियों से) समित, ज्ञानदर्शनादि सहित तथा सदैव संयत (संवृतअप्रमत्त) होकर (पण्डितमरण) की आकांक्षा करता हुआ (जीवन के अन्तिम क्षण तक) मनःसंवर (संयम) में विचरण करता है।" “ऐसा जागृत और वैर से उपरत वीर मनःसंवर साधक इस प्रकार ज्ञान, अनासक्ति, सहिष्णुता, जागरूकता और समता के प्रयोग द्वारा दुःखों-दुःखों के कारणभूत कर्मों से मुक्ति पा जाएगा।" . “ऐसा परम मनःसंवर के प्रति निष्ठावान् वीर साधक (एकमात्र वीतराग आज्ञा को केन्द्र में रखता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है। तथा लोकसंयोग (धन, परिवार आदि के जंजाल) से दूर हट जाता है। ......." "संसार में जो दुःख (के कारण) बताए गए हैं, मनःसंवर साधना में कुशल पुरुष उस दुःख (दुःख कारणरूप कर्मों) से मुक्त होने का परिज्ञान करते हैं। तथा कर्मों के कारण एवं निवारण आदि का सब प्रकार से ज्ञान प्राप्त करके उनसे मुक्त होने का सतत् अभ्यास करते हैं।" "जो मानव ध्रुवचारी अर्थात् शाश्वत सुखकेन्द्र-मोक्ष की ओर गतिशील होते हैं, वे मनःसंवर के विपरीत-विपर्यासपूर्ण पथ पर चलने की आकांक्षा नहीं करते। वे १. (क) आचारांग श्रु. १ अ. ३ उ. १, उवेहमाणो सद्दरूवेसु अंजू माराभिसंकी मरणा पमुच्चति। (ख) जे पज्जवजाय सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्यस्स खेयण्णे, से पज्जवजायसत्थस्स खेयण्णे। -वही १/३/१ (ग) एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठपहे मुणी। लोयंसी परमदंसी विवितजीवी उवसंते समिते सहिते सया जए कालकंखी परिब्बए। ___ -वही, श्रु. १ अ. ३ उ. २ सू. ३७९, ३८० (घ) जागर वेरोवरए वीरे एवं दुक्खा पमोक्खसि। -वही १/३7१ सू. ३६१ (ङ) एस वीरे पसंसिए, अच्चेइ लोय-संजोयं, एस णाए पवुच्चइ। वही १/२/६, सू. ३३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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