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________________ ८३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) से विषयों का चिन्तन, मनन, स्मरण या विकल्प न करना है। क्योंकि मन की मुख्य तीन क्रियाएँ हैं-स्मरण, चिन्तन-मनन और विकल्प-कल्पना करना। अतः मन में चिन्तन, मनन, स्मरण या विकल्प का न होना कहें, या मन का शून्य हो जाना कहें, अथवा मन का मर जाना कहें, एक ही बात है। इसी प्रकार मन को विषयों से रहित कर देना, अथवा मन में किसी भी प्रकार का विषय-चिन्तन-स्मरण या विकल्प न आने देना भी मन का शून्य (रिक्त) हो जाना है। इसे मनोविलय भी कहा जा सकता है। जिसके अभूतपूर्व लाभ के विषय में आराधनासार' में भी कहा गया है-“चित्त (मन) को (विषयों से) शून्य कर देने पर उसमें आत्मा का प्रकाश झलक उठता है।" मन की दो प्रकार की स्थितियाँ इसे ही मन के न होने की, अर्थात्-मन के उत्पन्न न होने की स्थिति कह सकते हैं। वस्तुतः चेतना के स्तर पर दो प्रकार की स्थितियाँ निष्पन्न होती हैं। एक-मन के होने की स्थिति, और दूसरी-मन के न होने की स्थिति। मनोविलय की, मनःशून्यत्व या मनोरिक्तता की जो स्थिति है, वह मन के न होने की स्थिति ही है। निश्चय दृष्टि से, अथवा चौदहवें गुणस्थान पर आरूढ़ होने पर-एक स्थिति ऐसी भी आ सकती है, जब मन बिलकुल रहता ही नहीं। किन्तु इस भूमिका पर आरोहण करने से पहले भी मनोविलय की ऐसी स्थिति आती रहती है, जब मन उत्पन्न नहीं होता, अर्थात्-सिर्फ ज्ञान चेतना रहती है, ज्ञाताद्रष्टापन रहता है, तब कहा जाता है कि इस समय अकेली चेतना है, मन नहीं है। उसका तात्पर्य है-रागद्वेषादिक या शुभाशुभ विकल्पात्मक मन का अस्तित्व नहीं है।' संसारी अवस्था में स्थूल मन निष्क्रिय होने पर भी सूक्ष्म मन क्रिया करता रहता है दूसरी स्थिति है-मन के होने की, जिसका अनुभव हम सदा करते ही हैं। बल्कि सुषुप्त अवस्था में, स्वप्न, एवं निद्रा की अवस्था में भी स्थूल मन निष्क्रिय हो जाता है, किन्तु सूक्ष्म मन या अवचेतन मन ज्ञानादि की क्रियाएँ करता है। जीव अवचेतन मन में तभी जाता है, जब वह गहराइयों में उतर कर अनुभूति करता है। इसलिए जागृत अवस्था के सहित जितनी भी अवस्थाएँ हैं, उन सबमें एक या दूसरे प्रकार से मन का अस्तित्व रहता ही है। वे स्थितियाँ मन के होने की साक्षी हैं। -आराधनासार ७४ १. सुण्णीकयम्मि चित्ते णूणं अप्पा पयासेइ। २. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण, पृ. १२० ३. वही, भावांश ग्रहण , पृ. ११५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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