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________________ मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८३७ अथवा मन में उठने वाले चिन्तन-मनन-विचार-प्रवाह को बिलकुल रोक देना मनोनिरोध या मनःसंवर नहीं है। मन की समस्त चेष्टाओं, प्रवृत्तियों या क्रियाओं को रोककर मन को छद्मस्थ भूमिका में सर्वथा निष्क्रिय, निर्विचार, तथा चिन्तन-मनन मुक्त कर देना मनोनिरोध या मनःसंवर का एकांगी अर्थ है। दशवैकालिक चूर्णि में संयम को ही आसव-निरोध रूप संवर बताकर मनःसंयम (मनःसंवर) की वास्तविक प्रक्रिया बताते हुए कहा है-“अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का प्रवर्तन ही मनःसंयम है।'' | .. मन को मारने का रहस्यार्थ ज्ञात होने पर ही व्यक्ति अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। इसी तथ्य का संकेत ‘आराधनासार' में किया गया है-“मनरूपी राजा के मर जाने पर इन्द्रियाँ रूपी सेना तो स्वयमेव मर जाती है।"२ यहाँ भी मन को वश में करने का संकेत है। मनोवशीकरण के लिए ज्ञान का अंकुश ___मन एक हाथी के समान है। मदोन्मत्त हाथी को वश में करना अत्यन्त कठिन होता है। किन्तु कुशल महावत यथोचित अंकुश लगाकर उसे भी वश में कर लेते हैं और अपने मनोरथ के अनुसार उसे अभीष्ट गन्तव्य स्थान की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार कुशल साधक विषय वासनाओं और कषायों के घोर उत्पथ की ओर जाते हुए मनरूपी हाथी को अंकुश लगाकर (संवर-निर्जरारूप) धर्म-पथ की दिशा में मोड़ देते हैं। ‘भगवती आराधना' में इसी तथ्य को उजागर किया गया है-"मनरूपी उन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान ही अंकुश के समान उपयोगी है।" ____ अतःमन को वश में करने की यथार्थ प्रक्रिया भलीभाँति समझ लेनी चाहिए, तभी व्यक्ति मनःसंवर की साधना में सफल हो सकता है। मन का विषयों से (शून्य) रहित हो जाना-मन का मर जाना है ___मन को मारने का एक समानार्थक शब्द और है-मन को विषयों से शून्य (रिक्त) कर देना। मन के मर जाने का अर्थ-मन का अस्तित्व-विहीन हो जाना नहीं है। अपितु मन १. (क) “मण-संजमो णाम अकुसल-मण-निरोहो, कुसल-मण-उदीरणं वा॥" -दशवैकालिक चूर्णि अ.१ (ख) आम्रवद्वारोपरमः संयमः। -वही, हारि. वृत्ति १/9 (ग) “अकुसल-मण-निरोहो, कुसल-मण-उदीरणं चेव।" -व्यवहार भाष्य पीठिका ७७ (घ) संयमनं संयमः-विषयकषाययोरुपरमः। -तत्त्वार्थभाष्य, हा. वृ. ६/२० २. 'मण-णरवइए मरणे मरंति सेणाई इंदियमयाइ॥" -आराधनासार ६० ..३. "णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्त-हत्यिस्स" -भगवती आराधना ७६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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