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________________ मनःसंवर का महत्त्व, लाभ और उद्देश्य ८१७ मलिन मन बन्ध का हेतु बनता है और रज और तम से रहित शुद्ध सात्विक होने पर मोक्ष का कारण होता है।' ___ बौद्धदर्शन में भी मन को बन्ध और मुक्ति का कारण बताते हुए लंकावतारसूत्र में कहा गया है-"चित्त की ही प्रवृत्ति होती है और चित्त (मन) की ही विमुक्ति होती है।" धम्मपद में कहा गया है-"सन्मार्ग में संलग्न चित्त सबसे अधिक हितकारी है और कुमार्ग में संलग्न चित्त (मन) सर्वथा अहितकारी। जो इस (मन) का संयम (निरोध) करते हैं, वे मार के बन्धन से मुक्त हो जाएंगे।" बौद्ध परम्परा में मन, चित्त, विज्ञप्ति, इन सबको पर्यायवाचक शब्द माना गया . है। धम्मपद में यह भी कहा गया कि जितनी भी अच्छी या बुरी प्रवृत्तियाँ होती है, वे सर्वप्रथम मन से होती हैं, मन से ही श्रेष्ठ प्रवृत्ति होती है, मन से ही निकृष्ट (दुष्ट) प्रवृत्ति होती है। सभी प्रवृत्तियाँ मनोमय होती हैं। निर्वाण प्राप्ति के लिए मन को निर्वात (अचंचल) दीपक की लौ की तरह शान्त करना आवश्यक है। चूँकि शुद्ध आत्मा तो बन्धन का कारण हो नहीं सकता, क्योंकि वह मन वचन और काया के योगों (प्रवृत्तियों) से सर्वथा रहित होता है। इसी प्रकार मनोभाव से रहित कायिक, वाचिक कर्म एवं जड़ कर्मपरमाणु भी अपने आप में बन्धकर्ता नहीं हो सकते। इसलिए बन्ध के प्रमुख कारण राग-द्वेष-मोह आदि मनो-जात भावों को माना गया। यद्यपि ये मनोभाव आत्मगत (आत्मिक) होते हैं, क्योंकि चेतनसत्ता के बिना ये उत्पन्न हो ही नहीं सकते, इसलिए रागादि के उत्पादन में चेतनसत्ता निमित्त कारण होते हुए भी मन के बिना रागादि भाव उत्पन्न नहीं कर सकती। इसलिए मन को ही बन्ध और मोक्ष का कारण माना गया है। मन कब बन्ध का, कब मुक्ति का वाहक ? .. ... ... ' पहले कहा गया था कि आत्मालपी नेत्र में स्वयं यथार्थ देखने की शक्ति क्षीण होती है तो वह मन रूपी उपनेत्र (चश्मे) के सहारे ज्ञान प्राप्त करता है। मनरूपी उपनेत्र यदि कलुषित, रागादि वृत्तियों से दूषित एवं विकृत रंग का हो तो वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं देता, वह प्रान्त ज्ञान देता है, जिससे वह आत्मा को बन्धन में डाल देता है, किन्तु १. "मन एव मनुष्याणां कारण बन्यमोक्षयोः । ___ बन्धाय विषयासक्त, मोक्षाय निर्विषयं मनः ।" -भत्राप्युपनिषद् ४/११, ग्रामविन्दूपनिषद् २ २. (क) धम्मपद ३७,२ (ख) लकावतार सूत्र १४५ (ग) मनो पुरगया धम्मा, मणौसेवा मणोमया। मनसा चे पान भासति वा करोति वा ॥ -धम्मपद १,२ ३. जैन बौद्ध गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से भावांश ग्रहण, पृ. ४८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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