SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) मन का योग होने पर ही सम्यग्दर्शन, यथाप्रवृत्तिकरण आदि जैनकर्मविज्ञान में बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि बनने के लिए अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ आदि आवेगों का संयम आवश्यक है। और उन तीव्रतम क्रोधादि आवेगों पर संयम मन ही कर सकता है। यही कारण है कि कर्म-मुक्ति के लिए सर्वप्रथम आवश्यक सम्यग्दर्शन केवल समनस्क प्राणियों को ही प्राप्त हो सकता है, अमनस्क प्राणियों को नहीं। इसीलिए माना गया कि सम्यगदर्शन के लिए की जाने वाली ग्रन्थि भेद की प्रक्रिया में यथाप्रवृत्तिकरण भी मन का योग होने पर होती हैं। . . मन, बन्ध और मुक्ति का हेतु : आगमों की दृष्टि से ____ मन जब संयमित एवं समाहित होता है, तभी अज्ञान की निवृत्ति और सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है, तभी शुद्ध संयमित एवं समाहित मन मोक्ष का हेतु बनता है। इसके विपरीत अनियंत्रित मन अज्ञान (मिथ्याव) का कारण होकर जीवों के लिए कर्मबन्ध का हेतु बनता है। इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि मनोगुप्ति एवं मनःसमाधारणता से मन एकाग्र हो जाता है। एकाग्र मन वाला जीव संयमाराधक होता है, ज्ञानपर्याय को प्राप्त होता है जिससे मिथ्यात्व (अज्ञान) नष्ट होकर सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है। . इसीलिए मन को बंध का हेतु भी कहा गया है और मुक्ति का भी। विभिन्न दर्शन-परम्पराओं की दृष्टि में मन,बन्धन और मुक्ति का कारण ___योगशास्त्र में कहा गया है-कर्मों का आनव और संवर मन के अधीन है। इसलिए जो व्यक्ति मन का निरोध (संवर) कर लेता है, उसके कर्म (बन्धन) भी पूर्णतया रुक जाते हैं। इसके विपरीत जो मन का निरोध (संवर) नहीं करता उसके कर्मों के बन्ध में अभिवृद्धि होती जाती है। वेदान्तदर्शन के मैत्राण्युपनिषद और ब्रह्मबिन्दूपनिषद् ग्रन्थों में भी कहा गया है"मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण मन है।" मन का विषयासक्त होना ही बन्ध का और उसका निर्विषय होना मुक्ति का कारण है। विवेकचूडामाणि में भी कहा गया है-मन से ही बन्ध की कल्पना होती है और उसी से मोक्ष की। मन ही देहादि विषयों में राग करके बाँधता है और मन ही विषसम विषयों के प्रति विरसता (विरक्ति) करके मुक्त कर देता है। इसलिए जीव के बन्धन और मुक्ति के विधान में मन ही (प्रमुख) कारण है। रजोगुण से १. स्थानांग सूत्र स्थान ५ उ. २ २. जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, भावांश ग्रहण पृ. ४८३ ३. उत्तराध्ययनसूत्र अ. २९, सू. ५३, ५६. ४. योगशास्त्र, श्लोक ४३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy