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________________ ५४६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) शुभकर्म से दूर रहें, शुभकर्म को भी कम से कम प्रवेश कराएँ कोई कह सकता है कि राग-द्वेषादि का सर्वथा अभाव तो बारहवें गुणस्थान की. भूमिका में होता है, इतनी उच्च अवस्था को प्राप्त न होने तक क्या करे ? कैसे वह कर्मों के प्रवेश को रोके ? बात यह है कि जब तक शरीर है, तब तक व्यक्ति को दैनिक चर्या तो करनी ही पड़ेगी, वह करे; किन्तु ऐसी अवांछनीय प्रवृत्तियों से दूर रहें, जिनसे पाप कर्मों का आनव और उत्तरक्षण में बन्ध हो । जितना भी हो सके, रागादि से दूर रहे, शुद्ध: (अबन्धक) कर्म करे, अथवा कम से कम शुभ कर्म करे, अशुभ कर्म से तो बिलकुल दूर रहे। इसके विषय में विस्तृत रूप से संवर के प्रकरण में प्रकाश डाला जाएगा। अवांछनीय तत्त्वों की तरह अवांछनीय कर्मों से मुख मोड़ ले मकान की खिड़की खोलने पर सूरज की रोशनी और बाहर की हवा को प्रवेश करने का मौका मिलता है, साथ ही तेज हवा के साथ अवांछनीय धूल, मिट्टी, कचरा या लू भी आ सकती है। अगर व्यक्ति अवांछनीय धूल, मिट्टी, कचरा नहीं चाहता है तो खिड़की में बारीक लोहे की जाली लगवा लेता है, ताकि अवांछनीय पदार्थ अंदर न घुसने पाएँ, और वांछनीय सूर्य की रोशनी, धूप या ठंडी हवा ही घुस सके। इसी प्रकार व्यक्ति चाहे तो अवांछनीय अशुभ कर्मों, निरर्थक प्रवृत्तियों, व्यर्थ की विकथाओं से अपना मुख मोड़ सकता है। विषय-वासनाओं, सुख-साधनों एवं अन्यान्य पर-पदार्थों की प्राप्ति की ललक न उठावे, प्राप्त होने पर प्रियता-अप्रियता की मुहर-छाप, अथवा राग-द्वेष की छाप उन पर न लगाए। दशवैकालिक सूत्र में बताए अनुसार उन वस्तुओं का प्राप्त होना, तथा उनका उपभोग करना शक्य होने पर भी उनकी ओर पीठ कर ले, उनसे मुख मोड़ ले।' इसी प्रकार ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहने से कर्म के आनव को, कर्म बन्ध होने से रोका जा सकता है। यदि इतना न हो सके तो कम से कम अशुभ- अवांछनीय कर्मों के आनव के कारणों से मुख मोड़ कर, उन्हें पास फटकने न देकर, यत्नाचार (विवेक) पूर्वक प्रत्येक प्रवृत्ति करके शुभ (कर्म) के आनव और उसके कारण होने वाले बंध को रोका जा सकता है। यह प्रक्रिया कर्मों से तालमेल बिठाने की है, अपनी आदत, प्रकृति एवं दृष्टि को मोड़ने की है। अवांछनीय अशुभ कर्मों को रोकने का यही तरीका सबसे बेहतर है। १. तुलना करें - जे य कंते पिए भोए लद्धे विपिट्ठी कुव्व । साहीणे चयइ भोए से हु चाइति वुच्च । Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक २/३ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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