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________________ ८१२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) द्वारा अनेकों आश्चर्यजनक भौतिक-अभौतिक कार्य सम्पन्न हए हैं, हो सकते हैं। जितने भी योगसाधना के अनुष्ठान हैं, वे मानसिक शक्तियों के अभिवर्धन-परिवर्धन के लिए तत्त्वदर्शियों और वैज्ञानिकों द्वारा मन की प्रचण्ड शक्ति का स्वीकार सभी शास्त्रकारों और योगी महापुरुषों ने मन को समस्त शक्तियों का भण्डार कहा है और इसका सदुपयोग करने हेतु इसे वश में करना अनिवार्य बताया है। किन्तु इस मनःशक्ति के विकृत होने पर जीवन का विनाश अवश्यम्भावी है। विकृत मन.वाले व्यक्ति का शरीर, बुद्धि, मस्तिष्क सभी विनष्ट होने लगते हैं। आधुनिक विज्ञान भी अब मन की प्रचण्डशक्ति को स्वीकार करने लगा है। साइकोलॉजी, पेरा-साइकोलॉजी, मेटाफिजिक्स, फेथ-हीलिंग आदि विज्ञान की धाराएँ मनःशक्ति के अध्ययन और शोध की धाराएँ हैं। ___ मन की शक्ति अणुशक्ति से किसी प्रकार भी कम नहीं है। इतिहास-पुराणों में वर्णित शाप और वरदान की घटनाएँ इसी मनःशक्ति के विध्वंस और सृजन के उदाहरण हैं। भारतीय तत्त्वदर्शियों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही देख-परख कर कह दिया था'मनः मानसं देवःचतुवर्ग-प्रदायकम्' अर्थात् मन की शक्ति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष दिलाने वाली सारी शक्तियाँ भरी पड़ी है। उसकी शुद्ध, सात्विक और विधायक शक्ति का उन्हें ज्ञान था। यही कारण है कि वे प्रातःकालीन प्रार्थना में कहा करते थे "जिसके बिना संसार का कोई भी कर्म (काम) नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन शिव अर्थात् मोक्ष के संकल्प वाला हो।" प्रचण्ड मनःशक्ति का सदुपयोग-दुरुपयोग उपयोगकर्ता पर निर्भर मनुष्य मन की इतनी अतुल शक्ति का स्वामी होने के बावजूद भी केवल उस पर यथायोग्य नियंत्रण एवं उसका यथोचित नियोजन न कर पाने के कारण परमुखापेक्षी एवं दीन-हीन, पराधीन बना रहता है। अनियंत्रित और अपरिष्कृत मन के दुष्परिणाम शक्ति के दुरुपयोग की तरह के ही होंगे। अणुशक्ति का उपयोग मानव-कल्याण के लिए किया जाए या मानव-संहार के लिए ? बिजली से प्रकाश, ताप आदि के रूप में लाभ लिया जाए या प्राणों का संकट उपस्थित किया जाए ? आग से भोजन बनाकर भूख मिटाई जाए या आग लगाकर भयंकर हानि एवं सर्वनाश किया जाए, यह सब मन की १. वही पृ.१४ २. (क) अखण्डज्योति, दिसम्बर १९७८ से भावांश ग्रहण पृ. १५ (ख) देवी भागवत (ग) “यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते। तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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