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________________ कों का आस्रव : स्वरूप और भेद ५४३ ठीक इसी प्रकार कर्म प्रायोग्य पुद्गल परमाणु तो सारे आकाश में तथा जीव के आसपास में फैले हुए हैं, वे घूमते रहते हैं, प्रवेश उसी जीव में, वहीं करते हैं, जहाँ उनके साथी पहले से बैठे हों या राग-द्वेष आदि की चिकनाहट हो। कर्मों को खींचकर आत्मा में ले आने या प्रवेश कराने के कारण ही उन्हें आसव कहा जाता है। सरोवर में नाले खुले होने से जलागमन की तरह आत्मा में भी आनवद्वारों से कर्मागमन एक सरोवर है, उसमें पानी आने के पाँच नाले हैं। सरोवर में पानी के लिए प्रवेशद्वार वे ही नाले हैं, परन्तु सरोवर के वे पाँचों नाले या पाँचों नालों में से कोई भी पहला या दूसरा नाला बंद हो, और बाकी के नाले खुले हों तो पानी सरोवर में आए बिना नहीं रहेगा। इसी प्रकार आत्मा रूपी सरोवर में भी कर्मरूपी जल आने के पाँच (आम्नव) द्वार हैं। यदि जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँचों द्वारों को; या इन पाँचों द्वारों में से पहले, दूसरे द्वारों को बंद करके बाकी के द्वार खुले रखेगा, फिर कहेगा कि मैंने तो कर्मों को बुलाया नहीं, तो क्या ऐसी स्थिति में कर्म आने से रुक जाएँगे ? वे द्वार खुले रखें और फिर चाहें कि कोई प्रवेश न करे, यह कैसे हो सकता है ? अतः कर्मों के आने के प्रवेशद्वारों को खुले रखें, फिर आप चाहें या न चाहें, कर्म स्वतः ही खिंचे चले आएँगे, और आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट हो जाएँगे।' आस्रव का व्युत्पत्त्यर्थ और मिथ्यात्वादि स्रोतों से कर्मों का आगमन आस्रव का निर्वचन आचार्यों ने दो प्रकार से किया है-जिससे कर्म आएँ, वह आसव है। अथवा आम्नवणमात्र यानी कमों का आना मात्र आम्रव है। 'राजवार्तिक' में इस सम्बन्ध में एक रूपक है-जैसे समुद्र खुला रहता है, उसके कोई बाँध या तट नहीं बना होता, इसलिए जल परिपूर्ण नदियाँ चारों ओर से आ-आ कर उसमें बेधड़क प्रविष्ट हो जाती हैं, समुद्र जल से भर जाता है। समुद्र चाहे कि मेरे अन्दर नदियाँ प्रविष्ट न हों, वे मुझे जल से न भरें, यह हो नहीं सकता; क्योंकि समुद्र के चारों ओर के छोर खुले हैं, कोई तटबंध या बाँध नहीं बना हुआ है। इसी प्रकार संसारी आत्मारूपी समुद्र के चारों ओर से कर्मरूपी जल आने के छोर खुले हों तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायादि स्रोतों से कर्म निश्चित ही आएँगे। १. (क) तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६/२/४-५ (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/२ २. (क) आस्रवत्यनेन आसवणमात्रं वा आम्नवः । -राजवार्तिक १/४/९ (ख) “यथा महोदधेः सलिलमापगामुखैरहरहरापूर्यते तथा मिथ्यादर्शनादि द्वाराऽनुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा समापूर्यते इति।" -वही, १/४/२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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